poet shire

poetry blog.

Sunday, June 15, 2025

juvenile poetry: My childhood school

🌪 Preface for “Ace of Spade”

“Of Dust, Dreams, and Barefoot Races”

There are some verses that don’t just rhyme — they breathe.
“Ace of Spade” was written in the smoke and sweat of my formative years. I must’ve been barely a teen when this poem spilled out — part frustration, part fun, part the ache of growing up without filters.

It’s the story of racing against odds — with old bicycles, second-hand school bags, and classmates who were warriors in rags. We were young, broke, and stupidly brave. Our scars were invisible, but our laughter was loud enough to silence them.

This poem isn’t refined.
It limps. It runs. It bruises.
But it lives.

Looking back now, I see it as a snapshot — of mischief, rebellion, and the kind of friendships that were built not on convenience but survival. And somewhere buried inside it, is that wide-eyed boy who believed that even with nothing — he could still be the “ace of spade.”

This is for him.

💔 ग़ज़ल: रफ़्ता रफ़्ता

 

✍️ तख़ल्लुस: वृहद


   भूमिका (शेर):

"उनसे मिले पर बना न कोई राब्ता,
हो गए जुदा हमसे वो रफ़्ता रफ़्ता।"

कुछ रिश्ते बिना अल्फ़ाज़ टूट जाते हैं —
ना शिकवा, ना शिकायत...
बस एक खामोश दरार
जो रफ़्ता रफ़्ता दरम्यान आ जाती है।


💔 ग़ज़ल

मुसलसल गुफ़्तगू बहती रही रफ़्ता रफ़्ता,
तड़प वस्ल की सुलगती रही रफ़्ता रफ़्ता।

फ़ासलों में क़ैद थी दो दिलों की आरज़ू,
जाने कब इक दरार आ गई रफ़्ता रफ़्ता।

कहा कुछ भी नहीं, इशारों में था राज़ छुपा,
दुखती रगों को वो छेड़ती गई रफ़्ता रफ़्ता।

नज़रों की आरज़ू का वो सदा देते रहे वास्ता,
फ़ासलों में तीसरे को छुपा गई रफ़्ता रफ़्ता।

हम समझते रहे फ़ासले जिस्म के हैं मगर,
दिल से भी रुख़्सत करती गईं रफ़्ता रफ़्ता।

तेरे रूठने पे, एक रोज आए दर पे तेरे वृहद,
तालीम-ए-इल्म-ए-हिज्र दे गईं रफ़्ता रफ़्ता।

नाज़िल हुई ग़ज़ल में, जैसे उतरती कोई हूर हो,
हम रदीफ़ रहे, काफिया बदलती गईं रफ़्ता रफ़्ता।


~वृहद 

🌹ग़ज़ल: सजदे में शाम

 इस शाम, हुस्न तू जो खिड़की पे आया है,
तेरे सजदे में ये शाम इबादत करने आया है।

तेरी ज़ुल्फ़ें अज़ान सी बिखरी हैं हवाओं में,
इक सहरा मेरा भी सजदा करने आया है।

तेरी पलकों की रौशनी में है सुरूर सा,
दिल फ़क़ीर मेरा रहमत पाने आया है।

तू जो मुस्कुरा दे, फ़लक झुक जाए ज़मीं पर,
तेरा दीदार माँगने ख़ुदा तेरे दर पे आया है।

बड़ी दूर तलक चला बृहदाभास में तेरे,
चश्म-ए-झरोखा सदा खुला रहे — दुआ आया है।

~vrihad

शब्दार्थ:

  • हुस्न – सौंदर्य, रूप

  • सजदा – झुककर प्रणाम करना

  • इबादत – पूजा, आराधना

  • अज़ान – मुस्लिम प्रार्थना की पुकार

  • सहरा – रेगिस्तान (यहाँ – सूना दिल)

  • फ़क़ीर – दरवेश, सच्चा प्रेमी

  • रहमत – दैवी कृपा

  • फ़लक – आकाश

  • दीदार – दर्शन

  • बृहदाभास – बृहद का अनुभूतिपरक विस्तार (तख़ल्लुस के साथ निजी प्रतीक)

  • चश्म-ए-झरोखा – खिड़की की नज़रों से देखना

Thursday, June 12, 2025

लालची शहर

 शीर्षक: लालची शहर

(एक मौसम की मृत्यु पर शोकगीत)


तुम्हें पता है,
बड़ा विवश सा दिखा एक शहर,
अपने ही कारनामों में गुम,
इतना मग्न रहा
कि कब क़ुदरत ने उससे
दिन का जून छीन लिया,
उसे इल्म तक न हुआ।

अब हवाओं में अनमाने मौसमों का मिज़ाज है,
जैसे क़ुदरत भी भूल बैठी हो
अपना सहज स्वभाव,
या शायद शहर ने ही भुला दिया उसे
— एक वफ़ादार कोने की तरह,
जिसे काम पड़ने पर ही याद किया जाता है।

शहर को महसूस तो हुआ
कि कुछ तो गड़बड़ है,
पर उसने अनदेखा किया
उस बुखार को, जो दोपहर में छिपा था।
उसे लगा,
ये बस गर्मी है, गुज़र जाएगी।

लेकिन ये गर्मी नहीं थी,
ये वो लालच का ताप था,
जिसने जून की धूप को विकृति बना दिया।

जैसे दुखियारों को सड़कों का भाजन बना दिया जाता है,
वैसे ही इस शहर ने
क़ुदरत को भी सड़कों पर छोड़ दिया,
बेखबर…
बेसहारा…

अब रात को देखो —
वो निशाचर वृत्तियों से घिरी है,
हर अंधेरे कोने में
कोई जहर पल रहा है,
बढ़ता जा रहा है,
धीरे-धीरे, चुपचाप।

शहर को इसकी कोई फ़िक्र नहीं,
क्योंकि वह अब इसी ज़हर का हिस्सा बन चुका है।
वह दिन में बुखार को अनदेखा करता है,
और रात में उसी बुखार की पूर्ति करता है।

अब शहर नहीं जीता,
वह लालच में बसता है।
वह साँस नहीं लेता,
बल्कि धुँआ छोड़ता है।
वह प्रेम नहीं करता,
बस ख़रीदता है।


क्योंकि यह शहर अब…
लालची हो गया है।

~vrihad

Monday, June 9, 2025

🌹मज़हब-ए-हिज्र🌹

इबादत-ए-इश्क़ में इश्क़ भी अब रब हो गया,
जिस्म थे जुदा मगर, हिज्र भी मज़हब हो गया।

'सबा-ए-ख़ैर' पूछते निगार जब तुम रुख़्सत हुए,
तेरी निशानियाँ ही जिस्त-ए-जहाँ सबब हो गया।

इक साया सा रुकता है तेरा चेहरा ज़ेहन में,
रुख़्सार की खुमारी भी बिन पीए ग़ज़ब हो गया।

वो इक फ़साना जीना था हमें वस्ल के बाद,
बाद-ए-हिज्र, ग़म-ए-हयात ही तलब हो गया।

लब न लरज़े तेरे तक़रीर-ए- ग़म-ए-हिज्र पर,
यादों का ही पहरा रहा—ये कैसा अदब हो गया।

‘वृहद’ परस्तिश करते हैं तसव्वुर-ए-बुत तिरा,
ग़मशीन था हिज्र कभी, अब वही मज़हब हो गया।

---
शब्दार्थ :
इबादत – आराधना
इश्क़ – प्रेम
रब – ईश्वर
हिज्र – वियोग
मज़हब – धर्म
सबा-ए-ख़ैर – शुभ प्रभात
निगार – प्रेमिका
रुख़्सत – विदा
निशानियाँ – स्मृतियाँ
जिस्त-ए-जहाँ – जीवन का अर्थ
ज़ेहन – मन, स्मृति
रुख़्सार – गाल
खुमारी – नशा, सुरूर
वस्ल – मिलन
ग़म-ए-हयात – जीवन का दुःख
तर्ज़ – तरीका, ढंग
अदब – शिष्टाचार / साहित्य
परस्तिश – उपासना
तसव्वुर-ए-बुत – प्रेमिका की कल्पना
ग़मशीन – दुखी, विषादयुक्त


Thursday, June 5, 2025

🌹ग़ज़ल - एक किताब की तरह

🖋️ परिचय:

कभी कुछ रिश्ते किताबों जैसे होते हैं —
अधूरे पन्ने, बसी हुई खुशबू, और वो एहसास
जो बार-बार पढ़ने पर भी नया लगता है।
यह ग़ज़ल, एक ऐसे ही अधूरे मगर मुकम्मल एहसास को समर्पित है।

Wednesday, June 4, 2025

एक दोस्त विशेष...

(न यार था, न प्यार था — फिर भी था विशेष)

एक दोस्त बड़ा ख़ास होता है,
वो जो तुम्हारी हरकतें चुपचाप झेलता है,
तुम्हारी हँसी में खिलखिला के खेलता है।

तिर्गियों में नूर सा चमकता है,
तुम्हारे ख़िज़ाँ के मौसम में
चंपा–चमेली सा महकता है।

हिज्र के वीरानों में जब सन्नाटा गूँजता है,
वो तुम्हारे आँगन में
खुशियों-सा चहकता है।

संघर्ष की कड़ी धूप में —
जब सब छाँव छोड़ जाते हैं,
वो साया बन के साथ चलता है।

वो दोस्त...
न नाम माँगता है,
न तारीफ़ें चाहता है,
न हिसाब रखता है,
बस ख़ुद को तुम्हारी ज़िंदगी में
ख़ामोशी से बुनता है।

जो तुम्हें मिल जाए —
वो निष्काम, निर्विकार दोस्त,
उसे गले लगा लेना,
थोड़ा उसके साथ जी लेना।

और जब ग़मों के आँसू
आँख तक पहुँचें,
तो उसे देख के
कतरा–कतरा पी लेना।

~ वृहद



Saturday, May 31, 2025

🚭 “कायेकू यार?” – एक ग़ज़ल, एक तंज़, एक चेतावनी

(विशेष प्रस्तुति: तंबाकू निषेध दिवस – 31 मई)

आज विश्व तंबाकू निषेध दिवस है।
लेकिन क्या सचमुच हम तंबाकू से ‘निषेध’ कर पाए हैं? या फिर बस नाम की मुहिमों में हिस्सा लेकर, फिर उसी गुमटी की ओर मुड़ जाते हैं?

ग़ज़ल एक समय में इश्क़ की ज़ुबान थी, आज इसे हमने समाज के ज़हर को आइना बना दिया है।
गुटका, सिगरेट, तंबाकू – जो कभी बुराई थी, अब आदत बन चुकी है।
लेकिन इस आदत की कीमत है — साँसें, ज़ुबां, होठ, और फिर ज़िंदगी।

आज के दिन, ये ग़ज़ल उनके लिए है — जो अब भी कहते हैं: "एक कश और..."

Thursday, May 29, 2025

पेड़ ध्यान में मग्न हैं

बसंती हवा ने
छेड़ दिया पेड़ों का मौन,
एक धीमी सी सारगोशी की —
कि कहीं कुछ कहें ये छायादार ऋषि,
मगर पेड़ ध्यान में लुप्त हैं,
कुछ बोलेंगे नहीं।

लू के थपेड़ों ने
जर्द कर दिए पलाश के पत्ते,
वाडव-अनल-सी धधकती कोंपलों ने
जैसे एक अग्नि-संदेशा दिया —
"सुनो, अब तो सुनो!"
मगर पेड़ ध्यान मग्न हैं,
कुछ बोलेंगे नहीं।

फिर चलीं पुरवइया की नम बयारें,
थपथपाईं सूनी डालियाँ,
हरियाते पत्तों और नन्हीं बूटियों ने भी
मौसमों से गुहार लगाई:
"अब की बार कुछ कह दो!"
मगर पेड़ समाधिस्थ हैं,
कुछ बोलेंगे नहीं।

इस शांत, मृदुल, तपस्वी छवि को
देखकर भी न पिघला,मानव का मदस्तर मन।
कतले आम कर डाला मुनियों का, पर
पेड़ मौन हैं, ये.....कुछ बोलेंगे नहीं....

Wednesday, May 28, 2025

🌹 इब्तिदा-ए-नज़्म

 (ग़ज़ल – वृहदाभार)

मतला:
उनकी यादों में रात की तन्हाई जब शामिल होती है,
उसी सुकूत-ए-लम्हे में ग़ज़ल मुझमें नाज़िल होती है।

शेर 1:
ग़म-ए-ज़िंदगी की तिर्गियों में होती है इक गुफ़्तगू,
फिर ग़ज़ल की शक्ल में यार-ए-दिल हासिल होती है।

शेर 2:
जर्द-ए-शब में जो इब्तिदा-ए-नज़्म सी थी सिहरन,
अब अशआर बनकर मेरी क़लम में शामिल होती है।

शेर 3:
उनके दर्पण-ए-सुख़न में उभरा इक जाना सा चेहरा,
अब दिल की वीरानियों में शामिल इक महफ़िल होती है।

मक़ता:
वृहदाभार, उन नक़्श-ए-नाज़नीं का वो मोजज़ा जो,
मतला से मक़ता तक सफ़र-ए-ग़ज़ल में नाज़िल होती है।

~वृहद

Tuesday, May 27, 2025

🌹 ग़ज़ल: "अश्क़ के पैमाने में"

उम्रें लगेंगी अब भी, असर-ए-हिज्र को जाने में,
तौला गया है रंज-ओ-दर्द अश्क़ के पैमाने में।

तेरी भीगी सी कश्ती इक राज़ करती है बयां,
तू देख, डूबा क्या-क्या है मेरे ग़म के ख़ज़ाने में।

इक माशूक़ थी वो भी, गुज़रे हुए फ़साने में,
इरादा था, सो छोड़ दिया कत्ल के उस खाने में।

ग़ाफ़िल रहा मैं हर झूठे प्यार के अफ़साने में,
जो छोड़ गया मुझको तन्हा, अश्कों के वीराने में।

नाज़िल हुए जब वो मेरी रूह की वृहदायत में,
ख़ुदा भी काफ़िर ठहरा उनके लिखे पैमाने में।


Sunday, May 25, 2025

विदाई के गीत।

तुम्हें हक़ है, तुम आगे बढ़ जाओ प्रिये,
मैंने तो ज़माने की बदहाली ओढ़ रखी है।
तुम कहाँ इस फटे कम्बल में सुख पाओगी,
तुम्हारी आकांक्षाएँ — नरम तकियों सी मुलायम हैं।
हमने तो एक आख़िरी सपना देखने का
हक़ भी खो दिया।

जब तक रहीं, राहत सी रहीं तुम,
नाउम्मीदी में आशा बनकर खिलीं तुम।
संघर्ष की हर मोड़ पर मुस्कुराती दिखीं तुम,
इन मुस्कानों में दुख छुपाकर —
एक शम्मा, उम्मीद की जला गई थीं तुम।

है तुम्हें अलविदा, प्रिये!
फिर किसी आपदा में मिलेंगे,
कभी खैरियत पूछने भर ही सही—
थोड़ी-सी गुफ़्तगू तो हो ही जाएगी।

कल की ही तो बात थी.......

जब ये नभ में बिखरती सोने सी किरणें,
फिर नए उजाले लाने को ढल रही थीं,
अपनी भी साँसें हौले-हौले
इस समाँ में घुल सी रही थीं।

यादों की नदियों तीरे बैठे थे
हम-तुम, और
वो आसमान पिघलते हुए नीलम हो रहा था।
एक ख़ामोशी सी थी, पर बयारें —
बयारें हल्की ठंड लिए,
तन की गर्म आहें लिए उड़ता जा रहा था।

ये परिंदे चहकते थे दिन भर आसमान में,
अब फेरते न थे मुख उस मंज़र पर
जो था तो बहुत सुंदर, पर आख़िरी भी।
वो आख़िरी मुलाक़ात थी,
या शायद, ये कल की ही तो बात थी।


वो आख़िरी मुलाक़ात — यादों की शाम में पिघलता आसमान

वो आख़िरी मुलाक़ात — यादों की शाम में पिघलता आसमान

कुछ लम्हे ऐसे होते हैं जो गुज़र तो जाते हैं, पर उनकी महक, उनकी ख़ामोशी, और उनसे जुड़ी हर एक झलक हमारी रूह में बस जाती है। यह कविता एक ऐसी ही शाम की स्मृति है — जहाँ बिछड़ने से पहले की नमी भी थी और प्यार की आख़िरी धूप भी।

जब ये नभ में बिखरती सोने सी किरणें,
फिर नए उजाले लाने को ढल रही थीं,
अपनी भी साँसें हौले-हौले
इस समाँ में घुल सी रही थीं।

यादों की नदियों तीरे बैठे थे
हम-तुम, और
वो आसमान पिघलते हुए नीलम हो रहा था।
एक ख़ामोशी सी थी, पर बयारें —
बयारें हल्की ठंड लिए,
तन की गर्म आहें लिए उड़ता जा रहा था।

ये परिंदे चहकते थे दिन भर आसमान में,
अब फेरते न थे मुख उस मंज़र पर
जो था तो बहुत सुंदर, पर आख़िरी भी।
वो आख़िरी मुलाक़ात थी,
या शायद, ये कल की ही तो बात थी।

कभी-कभी ज़िंदगी हमें एक ऐसा पल देती है, जो इतना सजीव होता है कि वो बीतने के बाद भी भीतर जिंदा रहता है। यह कविता उन अधूरे मगर खूबसूरत लम्हों का दस्तावेज़ है — जो हमारे पास न होते हुए भी हमारे साथ रहते हैं।

आँसू आँखों में रह गया,

 आँसू आँखों में रह गया,
और तेरा कुछ न कहना भी
बहुत कुछ कह गया। 

इत्मिनानियों की सेज़ पर, तुम्हारे सपने फले-फूले,
दुआओं का बस इतना ही मुखड़ा रह गया।
तुम बिन, एक सफ़र इस जन्म में फिर अधूरा रह गया —
इन चारदीवारियों में क़ैद कई जन्मों की जुगलबंदी,
इस जन्म में भी एकतरफा रह गया।
और तेरा कुछ न कहना भी,
बहुत कुछ कह गया।

आज फिर सूरज निकला है, घनी अंधकार की चादर से,
आज फिर रात सजी है, तारों से जड़ी चादर में।
ये चाँद, ये सूरज — आज फिर
उगते-ढलते, हर दिन, हर साल, हर सदी की तरह,
फिर सफ़र में तन्हा गुज़र गया।
और तेरा कुछ न कहना भी
बहुत कुछ कह गया।

ये ख़ामोशी के जेवर — सूत्र-सा जीवन बन,
ग्रीवा में चमकता हुआ रह गया।
इन आंखों का आँसू,
पलकों में छुपा रह गया।
तेरा कुछ न कहना भी,
बहुत कुछ कह गया।

साँसों की गर्मी में, आहों की नर्मी में,
एक एहसास-ए-ख़ास
फिर सेहमा-सा रह गया।

~vrihad




Friday, May 23, 2025

लफ़्ज़ जो गिरा था – एक तन्हा आवाज़ की दास्तान

कभी-कभी ज़िन्दगी के कोलाहल में एक लफ़्ज़ गिर जाता है।
पर अगर किसी ने उस लफ़्ज़ को उठाया,
तो वो तन्हा नहीं रहता… वो कहानी बन जाता है।
कोई देखता नहीं, कोई पूछता नहीं —

यह कविता, उसी गिरे हुए लफ़्ज़ की कहानी है।


लफ़्ज़ जो गिरा था

कहीं कभी कोई लफ़्ज़ गिरा मिला मुझे,
मैंने उसे उठा कर किसी नग़मे में पिरो लिया।

वो गया किसी महफ़िल में, बेज़ुबाँ सा,
जहाँ कराहते जज़्बातों की ज़ुबां बन गया।

मैंने देखा वहाँ उसके जैसे और भी थे,
गिर पड़े, कुचले हुए — मगर सब एक से बढ़कर एक।

वो लफ़्ज़... हाँ वही — जो दर्द में भी गाता था,
महफ़िल की रौनक बनता, फिर भुला दिया जाता था।

उसके स्वर में सिसकियाँ थीं, उसकी चाल में थकन,
और आँखों में बस एक तमन्ना — कि कोई समझे।

पर महफ़िलों को शोर चाहिए, असर नहीं,
वो लफ़्ज़ ज्योंही सुना, ताली बजी — फिर फेंक दिया गया।

वो लफ़्ज़ आज भी किसी कोने में सिसकता, तड़पता रहता है,
और महफ़िलों के बाहर — देखने, पूछने वाला कोई है ही नहीं।


एंड नोट:

हर बार जब तुम कोई कविता पढ़ो या सुनो —
तो ज़रा रुकना, महसूस करना।
क्योंकि जो लफ़्ज़ तुमने बस यूँही सुन लिया,
शायद वो किसी के दिल का आख़िरी हिस्सा था।

✍️ लेखक: वृहद

Thursday, May 22, 2025

बिछड़ा यार, ख़ुदा-ख़ुदा सा रहता है — वृहत

 कभी मोहब्बत की तासीर वक्त से बड़ी होती है।
कभी कोई जुदाई, ख़ुदा की तरह—नज़र नहीं आती, पर हर जगह मौजूद रहती है।
यह ग़ज़ल, एक ऐसे ही अक्स की परछाईं है—जो लहू में सिला रहता है, ज़ख़्म में हरा-भरा।

Wednesday, May 21, 2025

इंकार दे दो – एक ग़ज़ल इश्क़ के ज़हर में डूबी

भूमिका:
कभी-कभी मोहब्बत, मुश्क की तरह नहीं महकती… बस चुभती है — ज़ख़्म बनकर।
ये ग़ज़ल, उस दीवाने की पुकार है जिसने प्रेम से जवाब नहीं, मगर इंकार माँगा।

Friday, May 16, 2025

"तुम्हें देखा नहीं कब से..."

बीतने का नाम नहीं लेता — एक वो एहसास

कभी-कभी किसी की यादें सिर्फ़ स्मृतियाँ नहीं होतीं —
वो मौसमों में उतर आती हैं,
बादलों में घुल जाती हैं,

बीतने का नाम नहीं लेता — एक वो एहसास

कभी-कभी किसी की यादें सिर्फ़ स्मृतियाँ नहीं होतीं —
वो मौसमों में उतर आती हैं,
बादलों में घुल जाती हैं,
छाँव में ठहरती हैं,
और धूप में चुभने लगती हैं।

ऐसे ही एक अनुभव की कविता है ये।
जिसमें एक ‘तुम’ है —
जो गया भी नहीं,
और बीता भी नहीं।


तुम्हें देखा नहीं कब से...
फिर भी ये लगता है —
तुम्ही तुम हो मेरे इस दिल में।

तुम्हें न देख कर भी,
तुम्हें ही देखना —
बस एक आदत-सी हो गई है।

ये मेघ-मल्हारों-सी
उमड़ती-घुमड़ती यादें —
बादलों के अंदाज़ में,
थिरकते हुए देखा किया है मौसमों में तुम्हें।

एक धरा थी, मुझे थामे —
और एक तुम आए:
कभी धूप में झुलसाते,
दो बूँद नीरा को तरसाते;
कभी छाँव में अविरल विराम,
कभी अंबिया की मीठी आराम।

तुम —
राहत और आहत —
सबमें समाए रहे।

तुम्हें देखे ज़माना बीत गया,
पर, जाने वो कैसा अतीत था —
जो मुझसे बीतता नहीं,
जो मुझमें बितता नहीं...

Monday, May 5, 2025

मैं तुम्हारा आईना हूँ

(...लेकिन धूल हटानी तुम्हें ही होगी)

इंद्रियाँ अक्सर धोखा देती हैं,
और एहसास भी कभी-कभी फ़रेब बन जाते हैं।
मैं तुम्हारी आँखों से नहीं देखता इस दुनिया को —
मेरी अपनी नज़र है, अपना नज़रिया है।

और यही मेरी खामी नहीं, मेरी ख़ूबी है —
मैं अधूरा हूँ… इसीलिए तो पूरा हूँ।

मैं तुम्हारे लिए बस एक आईना बन सकता हूँ,
जो तुम्हें तुम्हारा ही अक्स दिखा दे —
बिना किसी लाग-लपेट के।

पर आईने का काम दिखाना है,
साफ़ रखना तुम्हारा फ़र्ज़ है।

तो अगर चाहता है कि
मैं वही बनूँ, जो मैं तेरे लिए बना हूँ —
तो इस आईने से धूल हटाते रहना दोस्त…
वरना मैं धुंधला हो जाऊँगा,
और तू — खुद को कभी देख न पाएगा।

शीर्षक: "उसके बाद, मैं कैसे जिया?" — एक संवाद जो भीतर तक उतर गया

भूमिका :

कुछ सवाल समय बीत जाने के बाद आते हैं… वो जब पूछती है तो शब्द नहीं, अनुभव जवाब देते हैं। ये कविता उसी एक संवाद पर आधारित है — एक मौन उत्तर, एक शांति भरे शून्य की ओर बहती आत्मस्वीकृति।


उसने पूछा:

"मेरे बिना… बिना बताए चले जाने के बाद,

क्या किया? तू कैसे जी पाया?"

मैंने कहा:

शायद…

जो किया, जैसे जिया—

अब वो सब कोई मायने नहीं रखता।

मैं एक मौन दर्शक बन गया,

धीरे…

निश्चित रूप से…

अराजकता के बीच,

बस यही कर सकता था।

मैंने देखा—

मन की हर तरंग

तन पर उतरती गई।

उन्हें उठते देखा…

फिर मिटते देखा।

वे लहरों की तरह आईं,

और लहरों की तरह चली गईं।

उस नीरवता में,

एक सत्य उभर आया—

ये सब नश्वर था,

एक विचार…

एक क्षणिक अनुभूति।

अगर वो प्रेम होता,

तो स्थायी होता।

वो टिकता…

सदियों तक।

और तब—

न पूरी तरह से चंगा,

न ही पूरी तरह टूटा,

बस…

मैं एक शांति भरे शून्य में डूब गया।

— वृहद

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