✍️ तख़ल्लुस: वृहद
भूमिका (शेर):
"उनसे मिले पर बना न कोई राब्ता,
हो गए जुदा हमसे वो रफ़्ता रफ़्ता।"
कुछ रिश्ते बिना अल्फ़ाज़ टूट जाते हैं —
ना शिकवा, ना शिकायत...
बस एक खामोश दरार
जो रफ़्ता रफ़्ता दरम्यान आ जाती है।
💔 ग़ज़ल
मुसलसल गुफ़्तगू बहती रही रफ़्ता रफ़्ता,
तड़प वस्ल की सुलगती रही रफ़्ता रफ़्ता।
फ़ासलों में क़ैद थी दो दिलों की आरज़ू,
जाने कब इक दरार आ गई रफ़्ता रफ़्ता।
कहा कुछ भी नहीं, इशारों में था राज़ छुपा,
दुखती रगों को वो छेड़ती गई रफ़्ता रफ़्ता।
नज़रों की आरज़ू का वो सदा देते रहे वास्ता,
फ़ासलों में तीसरे को छुपा गई रफ़्ता रफ़्ता।
हम समझते रहे फ़ासले जिस्म के हैं मगर,
दिल से भी रुख़्सत करती गईं रफ़्ता रफ़्ता।
तेरे रूठने पे, एक रोज आए दर पे तेरे वृहद,
तालीम-ए-इल्म-ए-हिज्र दे गईं रफ़्ता रफ़्ता।
हम रदीफ़ रहे, काफिया बदलती गईं रफ़्ता रफ़्ता।
~वृहद