एक याद बनकर रह गई है।
कहीं सुनाई देती है उस झंकार की फ़नकार,
तो वाह-वाही से महफ़िल सज जाती है।
वो नाम अब भी गुमनाम है,
शायद उनसे कोई गुफ़्तगू अब भी बाक़ी रह गई हो।
This blog is dedicated to poetry born from my tragedies and experiences—events that have allowed my emotions to flow into the stream of verse.
वो नाम अब भी गुमनाम है,
शायद उनसे कोई गुफ़्तगू अब भी बाक़ी रह गई हो।
What it was — don’t know,
and could never know till now.
A few weeks of surrender,
then lost — just a "habit" somehow?
And days pass,
like the distant hops of a rabbit.
But I disagree — I still
look into that well,
except now its water is dry,
and voices never return from the dark void.
I fill it —
in hope I might see my reflection again,
hear some topples,
the wobbling of waves —
all left behind.
But their turbulence still troubles
आंख लग जाएगी तो
कश्ती डूब जाएगी,
ज़िंदगी की कोई कल्पना ही करके देख लो,
ये अलग बात है।
So-called 'dreams,'
which, much thought after a good hard death of the day,
vanish, apparently...
Loving my job. Weird."*
2) If we learn to walk on the straight path of truth,
we’ll never need to climb the mountain of lies.
3) In the meantime, I learned to mock my sadness,
and now, I don’t know what my smiles really mean...
बस चंद कदमों की आहट लिए थी,
हौसला-अफ़ज़ाई को, ताकि कोई मंज़िल,
जो श्रम पर आधारित परिभाषित है,
उस तक पहुँचने को प्रयत्नशील हुई तो थी।
पर निरंतर इस प्रयास को जारी रखने के लिए,
जो पदचाप सुनाई देते थे, वे धूमिल हो गए हैं
दसों दिशाओं में।
और बढ़ने को ललायित ये 'कदम',
हर दिशा के होकर रह गए हैं।
फिर जब नींद टूटी, तो पाया—
कि हम एक पग भी न चले थे,
और वह पदचाप की आवाज़,
हमारे कानों की एक गूंज भर थी।
इतने टूटे हैं कि,
टूटने का भी इल्म न रहा।
इतने बिखरे हैं कि,
सिमटने का भी इल्म न रहा।
तुम्हें चाहा इस क़दर,
कि ख़ुद के होने का इल्म न रहा।
आईनों में ढूँढा तुम्हें इतना,
कि अपने अक्स का इल्म न रहा।
तेरे जल्वों में देखा रब को,
अब ख़ुदा के होने का इल्म न रहा।
‘वृहद’ वस्ल की आरज़ू में ऐसे जिए,
कि फ़ासलों का भी इल्म न रहा।
१
ग़र मेरे रूह-ए-सुकून का इल्म है तुझे दिल-नशीं,
तो ये भी मान कि ज़ुल्मत-ए-शब भी तुझसे ही है।
तेरा ही नाम लेकर रौशन किए थे दिल के चराग़,
मगर अफ़सोस, इस रोशनी में साया भी तुझसे ही है।
२
ये मेरे यक़ीन का इम्तिहान है,
कि हूँ तेरे दिल में मैं भी कहीं।
तेरी बिरहा की तड़प बता रही है,
कि हूँ तुझमें ज़िंदा मैं अब भी कहीं।
३
बर्बादियों के आख़िरी मंज़र की अंजुमन में,
ख़याल बरबस यूँ उतर आया…
तेरी दीद की थोड़ी सी धूप दिख जाए,
बसर-ए-नूर का आबे-हयात छलक जाए…
४
बहर-दर-बहर अशआर बहे इस क़दर,
बे-वफ़ा यार में बुझ गए शब ओ सहर।
५
इतनी बेगारी में बैठे है
तसव्वुर ए यार लिखते हैं
न कुछ कहते हैं न सुनते हैं
तेरी याद में तुझे लिखते हैं
बेख्याली, बेदिली का अलम न पूछो
ए मुश्यरे-दीदों
की यादों से ख़ाक हो सनम लिखते हैं
६
आपके शब-ए-ग़म की महफ़िलों के, दीवाने तो थे बहौत,
हम शब-ए-तन्हाई में, जुगनू बने, लशकारे बिखेरते रहे।
७
८
एक रोज़ मेरे खास दोस्त ने कहा था—
"सोचो तो मिलकर दोस्त, मैं तुझमें अपनी आज़ादी की सहर देखती हूँ।"
मैंने मुस्कुराकर कहा—
"तू ही तो मेरी अभिव्यक्ति की अंतिम आज़ादी है, इस बेग़ैरत दुनिया में!"
तेरा ज़िक्र — हर बात में,
जैसे कोई दूसरा हमसफ़र हो…
मरु में मृगतृष्णा बन तू चले,
"वृहद" जैसे तिशनगी में तृप्ति बसर हो…
तुम्हारी प्रेम-चेतना मानो बिखरने को थी,
पर तुमने अहंकार की ऐसी दुर्ग रच डाली,
कि अब तुम्हारा अहंकार ही
तुम्हारे अस्तित्व का पर्याय बन गया।
तुम्हारे मौन में अब कोई मौज नहीं बची,
वो मौन जो कभी सृजन था, संवाद था —
अब बस एक चुप्पी है,
एक बोझिल, अर्थहीन ख़ामोशी।
प्रेम की छटा जो थोड़ी बिखरने को होती,
तुम्हारे अहंकार के झरोखों से झाँकने लगती —
तो मानो अहंकार की छाया, मौन का पहरेदार,
तुम्हें आ घेरता,
और तुरंत बंद कर देता वो झरोखे।
तुमने जो दीवारें खड़ी की थीं,
अब उन्हीं में क़ैद होकर रह गए हो,
प्रेम तो अब भी द्वार पर खड़ा है,
मगर तुम्हारा मौन, उसे सुनने से इनकार करता है।
पर जानते हो?
इस चुप्पी के पार भी एक सन्नाटा है,
जहाँ तुम्हारा अहंकार भी थक कर सो जाता है,
वहाँ अब भी प्रेम साँस लेता है —
धीमे, मगर जीवित।
बस एक कदम है,
इस ऊँची दीवार को लाँघने का,
बस एक पुकार है,
उस सिमटी हुई प्रेम-चेतना को बिखेरने की।
मगर तुम जड़ बने खड़े हो,
अपनी ही बनाई कैद में —
जहाँ तुम्हें डर है कि,
अगर अहंकार गिरा,
तो शायद तुम्हारा पूरा वजूद ही
बिखर जाएगा।
पर यक़ीन मानो,
वो बिखरना ही तुम्हारा सृजन है,
वहीं से जन्म लेगा एक नया तुम —
जिसमें मौन भी गाएगा,
और प्रेम भी बह निकलेगा।
और आखिर में, ये सच्चाई देखो —
अहंकार की ऊँची अट्टालिकाएँ,
संसार के दिए नाम ओ नक़ाब —
ये जान लो, विप्र, ये तुम्हारी पहचान नहीं।
इन अहंकार के दुर्ग में छुपी
वो मासूम सी, उड़ने को बेताब चिरैया — बेनाम,
वो ही तो असली तुम हो,
जिसे तुमने ख़ुद अपने ही हाथों से कैद कर दिया है।
अब उस चिरैया को उड़ने दो,
उस प्रेम को बहने दो,
अहंकार की छाया को पिघलने दो,
मौन को गाने दो।
वो बिखराव ही तुम्हारा सृजन है,
वही तुम्हारा असली होना है।
तुम एक रोज़ सागर किनारे आए थे,
सागर किनारे की रेत पे पड़ी धूप-से
तुम भी चमकते हुए, खिले हुए थे।
तुम रेत से उजली, शुद्ध — और मैं
साहिलों सा था, अपनी मर्यादा में उलझा हुआ।
तुम्हें छू लेने के इरादे — कभी उठता, कभी गिरता —
मैं भी किनारे तक पहुँचता,
तुम्हारे कदमों को चूमता, फिर लौट आता।
मेरा उतावलापन कहीं जलजला न बन जाए,
इसलिए मैं अपनी मर्यादाओं की हद में रहा —
बस तुम्हें छूता और लौट आता।
वो मिलन क्षणभंगुर था,
और तुम चले गए।
ये इल्ज़ाम देकर मैं रेत पे लिखे
अपने ही नाम को मिटा गया।
पर ये तुमने देखा ही नहीं —
अपनी सीमाओं की मर्यादा में लिपटा हुआ मैं,
तुम्हें बस छू कर आ गया।
तुम फिर आना उस तट पर,
फिर मिलेंगे, उसी रेत पर।
मैं साहिल बन तुम्हें छू जाऊँगा,
शायद इस तरह — बस कुछ देर, कुछ पल —
तुम्हें छूकर फिर तुमसे दूर हो जाऊँगा।
तब तक, साहिलों की उतरती-चढ़ती लहरों पे सवार,
मैं हर रोज़, हर पल करूँगा —
तुम्हारा... बस तुम्हारा इंतज़ार।