जाने क्यों हैं ये रोज़ा इंतज़ार के
जब परवरदिगार के इशारे भी हैं
और है कुछ मौसमों की चाहत भी
कुछ आपके नेक इरादे भी हैं
कुछ फ़िराक ए जेहमत की फितरत भी
कुछ ताक भी है कुछ शौक भी है
शायद,
यूँ ही कुछ खालीपन सा उभर नहीं आया
मिलन के दो पैगाम से।
तो तोड़ क्यों न दें अब हम
ये रोज़ा इंतज़ार के।
ये बयारें ये बहारें,
आपकी हीं तो गुफ्तगू सुनाती है हमें
आओ अब हम तोड़ दें ये रोज़ा इंतज़ार के,
पनाहों में एक दूजे के संग जीत लें
कुछ पल इत्मीनान के।
ताकिया ए नज़ाक़त उन्मुक्त हो,
दें ऐसी कोई मिशाल ,
जैसे कोई मशाल सी धधकती रही हो,
सीने में हमारे और आपके
जो बुझ नहीं सकती
बिन एक दूजे के दीदार से
निगाहों के सुख क्यों न पा लें अब
महताब के श्रृंगार से
आओ तोड़ दें ये रोज़ा इंतज़ार के।
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