और एक वो थे साथ में,
साथ में ही रेस्टरूम जाने की ज़िद कर बैठे ,
और कह दिया की झूठ बोलते हो,
कोई तो रोक लेता
और कुछ समझ भी देता,
हाथ में तकिया था बेरहम के,
सीधा पेट में दे मारा मेरे,
इज़्ज़त फिर भी बाल बाल बच गयी
शुक्र करां तेरा रब्बा,
मेरी खैर मान गया,
जुलाब अपनी जगह और
उनका दिमाग अपनी जगह चला गया।
फिर जाने कब ऐसी लड़ाई होगी
या बस शब्दों की हीं गुथम गुत्थाई होगी।
माघ पूस या बैसाख़ सावन
जाने कब मिलूं मैं फिर तुमसे बांके साजन।
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