(वृहद की कलम से एक रक्तिम प्रेम आख्यान)
एक ब्राह्मण ने कहा था —
"तेरे नाम की लकीर नहीं है हथेली में..."
उठा खंजर, और पूछ लिया तड़पते दिल ने —
"हे ब्राह्मण! बता,
कौन सी लकीर खींच दूं नसीब में?"
खून जितना गाढ़ा — लकीर दिया तेरे नाम गढ़ हमने।
अब भी कलीरे तेरे हाथों में किसी गैर की हैं,
सर टीका और साज-श्रृंगार —
अमृत किसी और सुहाग की है।
अस्पताल की चौखट पर कोई तो लेने आया था मुझे,
टूट कर वो भी कह गया —
"तू खुद ज़िंदगी से रुख़सत हो,
ज़िंदगी उसके नाम कर गया ..."
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