तेरी तारीफ़ चंद लफ़्ज़ों में कह दूँ...
ऐसे अल्फ़ाज़ कहाँ से लाऊँ?
जो तेरे नूर को समेट लें,
वो मिसरे, वो आवाज़ कहाँ से लाऊँ?
ऐसे अल्फ़ाज़ कहाँ से लाऊँ?
जो तेरे नूर को समेट लें,
वो मिसरे, वो आवाज़ कहाँ से लाऊँ?
मसनवी लिख तो दूँ तेरे ख़याल में,
पर वो उम्र कहाँ से लाऊँ?
हर शेर में बस तू ही तू हो,
ऐसी तदबीर ओ ताबीर कहाँ से लाऊँ?
जब भी तुझसे मिलता हूँ,
वक़्त थम सा जाता है,
तेरे चेहरे पे रुकती हैं सदियाँ,
तेरे स्पर्श में जादू अनकहा है।
मगर वक़्त-ए-रुख़्सत की हक़ीक़त,
हर बार मुझे तोड़ जाती है,
तेरे जाते ही जैसे तन्हाई,
मेरी साँसों में सिरहाने रख जाती है।
काश, तू मेरी पहलू में शामिल हो जाए,
हर सहर की तहरीर में तुझसे मिलूँ,
और मैं —
तेरी तारीफ़ों की कविता बन जाऊँ।
~वृहद
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