poet shire

poetry blog.

Saturday, June 28, 2025

शांतनु की गंगा-सी

वो चुप है, ख़ामोश है, मौन है —
शांतनु की गंगा-सी।

हज़ारों प्रहेलिकाएँ उसके मुख पर मंडरातीं,
शांतनु की गंगा-सी।

प्रेम की धारा नित विस्फुटित बहती उससे,
शांतनु की गंगा-सी।

एक प्रश्न के किनारों पर ठहरी हैं सारी ख़ुशियाँ,
शांतनु की गंगा-सी।

न कोई आर्तनाद, न कोई विद्रोह,
बस एक मौन स्वीकृति —
धारण किए सागर तक बहती जाती,
शांतनु की गंगा-सी।

विमुक्त करने उतरी चंचलता में भी स्थिर,
शांतनु की गंगा-सी।

प्रेम अग्नि में भी वाद-काज़ के न छेड़ो,
शांतनु की गंगा-सी।

No comments:

Post a Comment

ads