सराहना की गूंज में
एक मूक-सी आवाज़ छोड़ गए हैं वो,
हमसे बिछड़कर
एक अमिट-सी याद छोड़ गए हैं वो।
कभी फुर्सत में
हमारे सवालों को मौक़ा न दिया,
पर हसरतों की गठरी पर
एक अधूरा-सा ख़्वाब छोड़ गए हैं वो।
स्वप्न के अहसास में
कहीं गहराई से उतर गए हैं,
पीछे मुड़कर देखने की अदा में
बिना शब्दों के कई संवाद छोड़ गए हैं वो।
खुशियों की परवरिश की हमने,
पर ग़म की मिट्टी में
जाने कितने अरमान छोड़ गए हैं वो।
उस आख़िरी चाय की प्याली की
चुस्कियों में
मुस्कान का अंदाज़ छोड़ गए हैं वो।
शायद कहीं केतली में
सौंधी सी ख़ुशबू लिए
वही चाय अब भी मंद आँच पर बन रही हो,
तुम्हें फिर से एक बार देखने को
वो अनजानी-सी नज़र आज भी तरस रही हो।
और जैसे ही हम घर आए,
ना जाने कैसे जान लिया —
और मुस्कुराकर पूछ ही लिया,
"देर तो नहीं हुई?"
इस ज़िक्र-ए-फ़िराक़ में
ज़िन्दगी की कशमकश छोड़ गए हो...
हाँ, तुम कुछ ऐसा छोड़ गए हो।
~वृहद
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