"पिता… वो नाम जो कई बार हमारी कविता में नहीं आता,
क्योंकि उन्होंने कभी अपने हिस्से की कविता कहने ही नहीं दी।
वो सिर झुका कर हमारे लिए छाँव बनते गए —
और हम समझते रहे कि छाँव तो होती ही है — अपने आप।
इस कविता में मैंने अपने बाबूजी को लिखा नहीं,
बस उन्हें धीरे-धीरे महसूस किया है…"– वृहद
ग़ज़ल :
एक ऊँचा क़द, एक वटवृक्ष जैसे हैं बाबूजी,
जीवन की धूप में सुकून की छाँव हैं बाबूजी।
कड़कती बोली में भी स्नेह छुपा रहता है,
डांट में भी प्यार का रंग घोलते हैं बाबूजी।
हमारी हर मुसीबत का पहाड़ खुद ढोते हैं,
चेहरे पे शिकन तक नहीं आने देते हैं बाबूजी।
अपने सपनों को चुपचाप सीने में रखकर,
हमारे ख़्वाबों को उड़ान दे देते हैं बाबूजी।
ख़ुद की ज़रूरतें आख़िरी पायदान पे रख,
हमारी ख़ुशियों को मुक़द्दर बना देते हैं बाबूजी।
पर अपनी प्रेम-प्यास बस पी जाते हैं बाबूजी।
~वृहद
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