मन की जाने कौन?
मन का मौन, मन का मौन
दिल की सुनता है कौन?
मन का मौन, मन का मौन
तुरही ही सी बजती,
अनहद को सुनता कौन?
मन का मौन, मन का मौन
तन में विस्तृत होता मन,
छाया बन छूता गगन —
पर उस छाया की छाया को,
पल भर छू पाता कौन?
मन का मौन, मन का मौन
मन की जाने, मन का मौन,
मौन को फिर,
जाने कौन, जाने कौन?
निःशब्दों में रचती भाषा,
बिन अर्थों के होते अर्थ —
धूप छाँव का एक समर्पण,
जैसे ध्यान करे निर्वर्त।
मन का मौन, मन का मौन
साक्षी बना जो बैठा चुप,
उसी ने पाया मौन का स्वरूप।
बाक़ी तो सब बोले जाते,
पर खोते हैं वह मौन रूप।
मन की जाने कौन?
मन का मौन, बस मन का मौन।
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