poet shire

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Wednesday, June 25, 2025

इरादा — वृहद

 ए सुनो न,
कुछ कहना था तुमसे...

हाथ थामा है —
यूँ ही छुड़ा तो न दोगे?
मेरी सहूलियत को बहाना देकर,
रक़ीब की बाहों का उपहार तो न दोगे?

गुज़री है विरह की वेदनाओं में आधी ज़िंदगी,
कुछ बचा रहा, वो चलती साँसों भर है ज़िंदगी।
वेदनाओं में संबल बन,
मुझे गिरा तो न दोगे?
हौसला देकर फिर कोई दग़ा तो न दोगे?

मेरे ज़ख़्मी दिल को बहला कर,
फिर अकेलेपन में छोड़ तो न दोगे?

आशाओं के अगिनत बवंडरों में झूल कर,
हाड़-मांस की ये कश्ती कब की टूटकर —
वक़्त की रेत में अविलंब बह रही थी...
कोई झूठा ख़्वाब फिर से तो न बो दोगे?

मेरा प्रेमाशियाँ — जाने कब का उजड़ चुका,
उम्मीदों के दीपक की लौ भी बुझ चुकी।
घुप अंधकार ही है जीवन में अब शेष —
तिश्नगी नई दे,
फिर प्यासा ही तो न छोड़ दोगे?

बिरहा की दीवार सजा,
मैं अकिंचन बैठा रहा,
अपने ही मन की कैद में,
जाने कैसे बसर रहा।

एक छुअन से तुमने
मेरे विरह का क़िला तोड़ डाला,
अतिक्रमण किया,
और उसे भ्रम कह डाला...
फिर कोई नया भ्रम — तो न दोगे तुम?

अगिनत घाव हैं —
कई रिश्तों से रिसते हुए,
संघर्षों से,
विरह–वेदना के नीम–कश तीरों से।
अपनों के फरेब,
और प्रेम–विछोह की राख लिए —
अब क्या तुम भी…
उसी राख पर कोई सौगंध तो न दोगे?

Monday, June 23, 2025

थे अधूरे में पूरे,

 थे अधूरे में पूरे,
ख़्वाब भी, हक़ीक़त भी,
अरमान भी, परितोष भी,
उलझनों में बसर तो रही,
मगर... ज़िंदगी कहीं।

इक कहानी जी थी
हमने किसी ज़माने —
इक साथ की आरज़ू,
बेकरारी की रातें थीं।
तन्हाइयों में भी उनके
चंद यादों के गुलशन थे —
जो महकते थे...
हिज़्र की ख़िज़ाँ में भी।

उन उदास लम्हों की
अनकही गुहारों में,
प्रेम की बुझती पुकारों में,
टिमटिमाती रातों की
जुगनू-सी जलती रातों में —
एक प्रतीक्षा... जीवंत रही।

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ख़ुदा ने दुआओं में इक नूर बख़्शा,
रहगुज़र-ए-निगार में इक हूर बख़्शा।

उनकी दीद में तरन्नुम गा रहे हैं,
आजाद हो उड़ा परिंदा, सुदूर बख़्शा।

मन की कैद में उम्र की सज़ा काट दी,
उजास हमें उम्मीद का शुऊर बख़्शा।

नफ़स नाज़िल किया उन्हें हममें,
मोज़ज़ा ने जिंदा किया... शकूर बख़्शा।

वृहदाभार! आपकी सोहबत में,
नेमतें-ए-इश्क़ की दौलत भरपूर बख़्शा।

Sunday, June 22, 2025

🌹 ग़ज़ल: असर-ए-दीद से कैसा राब्ता हो गया है। 🌹

उनकी असर-ए-दीद से कैसा राब्ता हो गया है,
बहती क़लम में मानो वो वाबस्ता हो गया है।

हर स्याही में उनकी याद की ख़ुशबू बस गई,
हर सफ़्हा मेरी रूह का आरास्ता हो गया है।

इक तेरी मुस्कान ने जबसे मुझे छुआ है,
अल्फ़ाज़ भी जैसे इश्क़ का वास्ता हो गया है।

कल तलक जो ख़ामोश थी ये वीरान सी तहरीर,
तेरे ज़िक्र से हर लफ़्ज़ गुलिस्तां हो गया है।

मुझे भी नहीं ख़बर थी, मैं इतना तुझमें गुम हूँ,
कि जो मैं लिखूँ, वही मेरा आस्ताँ हो गया है। 

शब्द अर्थ

असर-ए-दीद: नज़र का प्रभाव, देखने का असर

राब्ता : संबंध, जुड़ाव

वाबस्ता: सम्बद्ध, जुड़ा हुआ

सफ़्हा :पृष्ठ, पन्ना

आरास्ता :सुसज्जित, अलंकृत

वास्ता : संबंध, जुड़ाव का माध्यम

तहरीर :लेखनी, लिखी गई चीज़

गुलिस्तां :पुष्पवाटिका,

बाग़; सुंदरता और भावों की जगह

आस्ताँ: चौखट, दर, आस्था या प्रेम की मंज़िल

गुम खोया हुआ।

Wednesday, June 18, 2025

✨ तेरी तारीफ़...

तेरी तारीफ़ चंद लफ़्ज़ों में कह दूँ...
ऐसे अल्फ़ाज़ कहाँ से लाऊँ?
जो तेरे नूर को समेट लें,
वो मिसरे, वो आवाज़ कहाँ से लाऊँ?

मसनवी लिख तो दूँ तेरे ख़याल में,
पर वो उम्र कहाँ से लाऊँ?
हर शेर में बस तू ही तू हो,
ऐसी तदबीर ओ ताबीर कहाँ से लाऊँ?

जब भी तुझसे मिलता हूँ,
वक़्त थम सा जाता है,
तेरे चेहरे पे रुकती हैं सदियाँ,
तेरे स्पर्श में जादू अनकहा है।

मगर वक़्त-ए-रुख़्सत की हक़ीक़त,
हर बार मुझे तोड़ जाती है,
तेरे जाते ही जैसे तन्हाई,
मेरी साँसों में सिरहाने रख जाती है।

काश, तू मेरी पहलू में शामिल हो जाए,
हर सहर की तहरीर में तुझसे मिलूँ,
और मैं —
तेरी तारीफ़ों की कविता बन जाऊँ।

~वृहद 

Monday, June 16, 2025

बाबूजी – छाँव और आधार

"पिता… वो नाम जो कई बार हमारी कविता में नहीं आता,
क्योंकि उन्होंने कभी अपने हिस्से की कविता कहने ही नहीं दी।
वो सिर झुका कर हमारे लिए छाँव बनते गए —
और हम समझते रहे कि छाँव तो होती ही है — अपने आप।
इस कविता में मैंने अपने बाबूजी को लिखा नहीं,
बस उन्हें धीरे-धीरे महसूस किया है…"

– वृहद

Sunday, June 15, 2025

Fool of Consciousness

Preface for Fool of Consciousness
“Notes from the Mind’s Abyss”
This poem was born at the edge of reason — during a time when I couldn’t tell if I was waking from a dream or falling into one. I wrote it as a teen, but it feels like it came from someone much older, or much more unhinged — questioning truth, chasing illusion, laughing at logic.

It’s unhinged, yes — but deliberately.

This wasn’t meant to be understood. It was meant to disturb. To mirror that inner fugitive we all carry — the one who sees meaninglessness not as despair, but as freedom.

What is real? What is virtual? And who decides?

Ask the fool — he’s not lost. He just doesn’t play by your maps.

– वृहद् (Vivek)

Symphony of Goodness

Ransack your heart, take out a word,
Let the word be sweet,

Preface for Symphony of Goodness
“A Child's Gospel to the World”
This poem was born in the quiet chambers of my juvenile conscience — back when I thought goodness could save the world if only we all tried hard enough. And perhaps, in that simplicity, lies a deeper truth.

“Symphony of Goodness” isn’t polished. It’s not doctrinal or theological. It’s just one boy’s sincere cry to live with kindness, to speak sweetly, to serve the poor, and to let God’s light be visible in action.

It was my gospel — naïve, hopeful, and raw. And sometimes, I still return to these words when the adult world gets too loud to hear the voice of innocence.

– वृहद् (Vivek)


juvenile poetry: The Eye of the Mirror

🪞 Preface for “The Eye of the Mirror”

“Reflections from a Restless Soul”

“The Eye of the Mirror” is different. Quieter. Almost meditative.
It was written in one of those emotionally restless phases where I began looking inward — confronting myself in shards and reflections. I don’t remember exactly when I wrote it, but I remember why — because I couldn’t figure out if the person in the mirror was me, or merely an echo of my confusion.

This poem isn’t about vanity — it’s about vulnerability.
How the mirror doesn’t lie — it exaggerates, it exposes.
It shows joy, yes, but it also mocks guilt. It can become a playground, or a courtroom.

At that age, I hadn’t read psychology or philosophy. But somewhere, I had already begun feeling them. This poem came from that raw corner — where a boy begins to see the cracks in himself and wonders whether breaking or healing is the answer.

It’s flawed, like all early poetry should be.
But its honesty? That remains untouched.

This is not just a poem. It’s a mirror — of a heart in motion.

juvenile poetry: My childhood school

🌪 Preface for “Ace of Spade”

“Of Dust, Dreams, and Barefoot Races”

There are some verses that don’t just rhyme — they breathe.
“Ace of Spade” was written in the smoke and sweat of my formative years. I must’ve been barely a teen when this poem spilled out — part frustration, part fun, part the ache of growing up without filters.

It’s the story of racing against odds — with old bicycles, second-hand school bags, and classmates who were warriors in rags. We were young, broke, and stupidly brave. Our scars were invisible, but our laughter was loud enough to silence them.

This poem isn’t refined.
It limps. It runs. It bruises.
But it lives.

Looking back now, I see it as a snapshot — of mischief, rebellion, and the kind of friendships that were built not on convenience but survival. And somewhere buried inside it, is that wide-eyed boy who believed that even with nothing — he could still be the “ace of spade.”

This is for him.

💔 ग़ज़ल: रफ़्ता रफ़्ता

 

✍️ तख़ल्लुस: वृहद


   भूमिका (शेर):

"उनसे मिले पर बना न कोई राब्ता,
हो गए जुदा हमसे वो रफ़्ता रफ़्ता।"

कुछ रिश्ते बिना अल्फ़ाज़ टूट जाते हैं —
ना शिकवा, ना शिकायत...
बस एक खामोश दरार
जो रफ़्ता रफ़्ता दरम्यान आ जाती है।


💔 ग़ज़ल

मुसलसल गुफ़्तगू बहती रही रफ़्ता रफ़्ता,
तड़प वस्ल की सुलगती रही रफ़्ता रफ़्ता।

फ़ासलों में क़ैद थी दो दिलों की आरज़ू,
जाने कब इक दरार आ गई रफ़्ता रफ़्ता।

कहा कुछ भी नहीं, इशारों में था राज़ छुपा,
दुखती रगों को वो छेड़ती गई रफ़्ता रफ़्ता।

नज़रों की आरज़ू का वो सदा देते रहे वास्ता,
फ़ासलों में तीसरे को छुपा गई रफ़्ता रफ़्ता।

हम समझते रहे फ़ासले जिस्म के हैं मगर,
दिल से भी रुख़्सत करती गईं रफ़्ता रफ़्ता।

तेरे रूठने पे, एक रोज आए दर पे तेरे वृहद,
तालीम-ए-इल्म-ए-हिज्र दे गईं रफ़्ता रफ़्ता।

नाज़िल हुई ग़ज़ल में, जैसे उतरती कोई हूर हो,
हम रदीफ़ रहे, काफिया बदलती गईं रफ़्ता रफ़्ता।


~वृहद 

🌹ग़ज़ल: सजदे में शाम

 इस शाम, हुस्न तू जो खिड़की पे आया है,
तेरे सजदे में ये शाम इबादत करने आया है।

तेरी ज़ुल्फ़ें अज़ान सी बिखरी हैं हवाओं में,
इक सहरा मेरा भी सजदा करने आया है।

तेरी पलकों की रौशनी में है सुरूर सा,
दिल फ़क़ीर मेरा रहमत पाने आया है।

तू जो मुस्कुरा दे, फ़लक झुक जाए ज़मीं पर,
तेरा दीदार माँगने ख़ुदा तेरे दर पे आया है।

बड़ी दूर तलक चला बृहदाभास में तेरे,
चश्म-ए-झरोखा सदा खुला रहे — दुआ आया है।

~vrihad

शब्दार्थ:

  • हुस्न – सौंदर्य, रूप

  • सजदा – झुककर प्रणाम करना

  • इबादत – पूजा, आराधना

  • अज़ान – मुस्लिम प्रार्थना की पुकार

  • सहरा – रेगिस्तान (यहाँ – सूना दिल)

  • फ़क़ीर – दरवेश, सच्चा प्रेमी

  • रहमत – दैवी कृपा

  • फ़लक – आकाश

  • दीदार – दर्शन

  • बृहदाभास – बृहद का अनुभूतिपरक विस्तार (तख़ल्लुस के साथ निजी प्रतीक)

  • चश्म-ए-झरोखा – खिड़की की नज़रों से देखना

Thursday, June 12, 2025

लालची शहर

 शीर्षक: लालची शहर

(एक मौसम की मृत्यु पर शोकगीत)


तुम्हें पता है,
बड़ा विवश सा दिखा एक शहर,
अपने ही कारनामों में गुम,
इतना मग्न रहा
कि कब क़ुदरत ने उससे
दिन का जून छीन लिया,
उसे इल्म तक न हुआ।

अब हवाओं में अनमाने मौसमों का मिज़ाज है,
जैसे क़ुदरत भी भूल बैठी हो
अपना सहज स्वभाव,
या शायद शहर ने ही भुला दिया उसे
— एक वफ़ादार कोने की तरह,
जिसे काम पड़ने पर ही याद किया जाता है।

शहर को महसूस तो हुआ
कि कुछ तो गड़बड़ है,
पर उसने अनदेखा किया
उस बुखार को, जो दोपहर में छिपा था।
उसे लगा,
ये बस गर्मी है, गुज़र जाएगी।

लेकिन ये गर्मी नहीं थी,
ये वो लालच का ताप था,
जिसने जून की धूप को विकृति बना दिया।

जैसे दुखियारों को सड़कों का भाजन बना दिया जाता है,
वैसे ही इस शहर ने
क़ुदरत को भी सड़कों पर छोड़ दिया,
बेखबर…
बेसहारा…

अब रात को देखो —
वो निशाचर वृत्तियों से घिरी है,
हर अंधेरे कोने में
कोई जहर पल रहा है,
बढ़ता जा रहा है,
धीरे-धीरे, चुपचाप।

शहर को इसकी कोई फ़िक्र नहीं,
क्योंकि वह अब इसी ज़हर का हिस्सा बन चुका है।
वह दिन में बुखार को अनदेखा करता है,
और रात में उसी बुखार की पूर्ति करता है।

अब शहर नहीं जीता,
वह लालच में बसता है।
वह साँस नहीं लेता,
बल्कि धुँआ छोड़ता है।
वह प्रेम नहीं करता,
बस ख़रीदता है।


क्योंकि यह शहर अब…
लालची हो गया है।

~vrihad

Monday, June 9, 2025

🌹मज़हब-ए-हिज्र🌹

इबादत-ए-इश्क़ में इश्क़ भी अब रब हो गया,
जिस्म थे जुदा मगर, हिज्र भी मज़हब हो गया।

'सबा-ए-ख़ैर' पूछते निगार जब तुम रुख़्सत हुए,
तेरी निशानियाँ ही जिस्त-ए-जहाँ सबब हो गया।

इक साया सा रुकता है तेरा चेहरा ज़ेहन में,
रुख़्सार की खुमारी भी बिन पीए ग़ज़ब हो गया।

वो इक फ़साना जीना था हमें वस्ल के बाद,
बाद-ए-हिज्र, ग़म-ए-हयात ही तलब हो गया।

लब न लरज़े तेरे तक़रीर-ए- ग़म-ए-हिज्र पर,
यादों का ही पहरा रहा—ये कैसा अदब हो गया।

‘वृहद’ परस्तिश करते हैं तसव्वुर-ए-बुत तिरा,
ग़मशीन था हिज्र कभी, अब वही मज़हब हो गया।

---
शब्दार्थ :
इबादत – आराधना
इश्क़ – प्रेम
रब – ईश्वर
हिज्र – वियोग
मज़हब – धर्म
सबा-ए-ख़ैर – शुभ प्रभात
निगार – प्रेमिका
रुख़्सत – विदा
निशानियाँ – स्मृतियाँ
जिस्त-ए-जहाँ – जीवन का अर्थ
ज़ेहन – मन, स्मृति
रुख़्सार – गाल
खुमारी – नशा, सुरूर
वस्ल – मिलन
ग़म-ए-हयात – जीवन का दुःख
तर्ज़ – तरीका, ढंग
अदब – शिष्टाचार / साहित्य
परस्तिश – उपासना
तसव्वुर-ए-बुत – प्रेमिका की कल्पना
ग़मशीन – दुखी, विषादयुक्त


Thursday, June 5, 2025

🌹ग़ज़ल - एक किताब की तरह

🖋️ परिचय:

कभी कुछ रिश्ते किताबों जैसे होते हैं —
अधूरे पन्ने, बसी हुई खुशबू, और वो एहसास
जो बार-बार पढ़ने पर भी नया लगता है।
यह ग़ज़ल, एक ऐसे ही अधूरे मगर मुकम्मल एहसास को समर्पित है।

Wednesday, June 4, 2025

एक दोस्त विशेष...

(न यार था, न प्यार था — फिर भी था विशेष)

एक दोस्त बड़ा ख़ास होता है,
वो जो तुम्हारी हरकतें चुपचाप झेलता है,
तुम्हारी हँसी में खिलखिला के खेलता है।

तिर्गियों में नूर सा चमकता है,
तुम्हारे ख़िज़ाँ के मौसम में
चंपा–चमेली सा महकता है।

हिज्र के वीरानों में जब सन्नाटा गूँजता है,
वो तुम्हारे आँगन में
खुशियों-सा चहकता है।

संघर्ष की कड़ी धूप में —
जब सब छाँव छोड़ जाते हैं,
वो साया बन के साथ चलता है।

वो दोस्त...
न नाम माँगता है,
न तारीफ़ें चाहता है,
न हिसाब रखता है,
बस ख़ुद को तुम्हारी ज़िंदगी में
ख़ामोशी से बुनता है।

जो तुम्हें मिल जाए —
वो निष्काम, निर्विकार दोस्त,
उसे गले लगा लेना,
थोड़ा उसके साथ जी लेना।

और जब ग़मों के आँसू
आँख तक पहुँचें,
तो उसे देख के
कतरा–कतरा पी लेना।

~ वृहद



Saturday, May 31, 2025

🚭 “कायेकू यार?” – एक ग़ज़ल, एक तंज़, एक चेतावनी

(विशेष प्रस्तुति: तंबाकू निषेध दिवस – 31 मई)

आज विश्व तंबाकू निषेध दिवस है।
लेकिन क्या सचमुच हम तंबाकू से ‘निषेध’ कर पाए हैं? या फिर बस नाम की मुहिमों में हिस्सा लेकर, फिर उसी गुमटी की ओर मुड़ जाते हैं?

ग़ज़ल एक समय में इश्क़ की ज़ुबान थी, आज इसे हमने समाज के ज़हर को आइना बना दिया है।
गुटका, सिगरेट, तंबाकू – जो कभी बुराई थी, अब आदत बन चुकी है।
लेकिन इस आदत की कीमत है — साँसें, ज़ुबां, होठ, और फिर ज़िंदगी।

आज के दिन, ये ग़ज़ल उनके लिए है — जो अब भी कहते हैं: "एक कश और..."

Thursday, May 29, 2025

पेड़ ध्यान में मग्न हैं

बसंती हवा ने
छेड़ दिया पेड़ों का मौन,
एक धीमी सी सारगोशी की —
कि कहीं कुछ कहें ये छायादार ऋषि,
मगर पेड़ ध्यान में लुप्त हैं,
कुछ बोलेंगे नहीं।

लू के थपेड़ों ने
जर्द कर दिए पलाश के पत्ते,
वाडव-अनल-सी धधकती कोंपलों ने
जैसे एक अग्नि-संदेशा दिया —
"सुनो, अब तो सुनो!"
मगर पेड़ ध्यान मग्न हैं,
कुछ बोलेंगे नहीं।

फिर चलीं पुरवइया की नम बयारें,
थपथपाईं सूनी डालियाँ,
हरियाते पत्तों और नन्हीं बूटियों ने भी
मौसमों से गुहार लगाई:
"अब की बार कुछ कह दो!"
मगर पेड़ समाधिस्थ हैं,
कुछ बोलेंगे नहीं।

इस शांत, मृदुल, तपस्वी छवि को
देखकर भी न पिघला,मानव का मदस्तर मन।
कतले आम कर डाला मुनियों का, पर
पेड़ मौन हैं, ये.....कुछ बोलेंगे नहीं....

Wednesday, May 28, 2025

🌹 इब्तिदा-ए-नज़्म

 (ग़ज़ल – वृहदाभार)

मतला:
उनकी यादों में रात की तन्हाई जब शामिल होती है,
उसी सुकूत-ए-लम्हे में ग़ज़ल मुझमें नाज़िल होती है।

शेर 1:
ग़म-ए-ज़िंदगी की तिर्गियों में होती है इक गुफ़्तगू,
फिर ग़ज़ल की शक्ल में यार-ए-दिल हासिल होती है।

शेर 2:
जर्द-ए-शब में जो इब्तिदा-ए-नज़्म सी थी सिहरन,
अब अशआर बनकर मेरी क़लम में शामिल होती है।

शेर 3:
उनके दर्पण-ए-सुख़न में उभरा इक जाना सा चेहरा,
अब दिल की वीरानियों में शामिल इक महफ़िल होती है।

मक़ता:
वृहदाभार, उन नक़्श-ए-नाज़नीं का वो मोजज़ा जो,
मतला से मक़ता तक सफ़र-ए-ग़ज़ल में नाज़िल होती है।

~वृहद

Tuesday, May 27, 2025

🌹 ग़ज़ल: "अश्क़ के पैमाने में"

उम्रें लगेंगी अब भी, असर-ए-हिज्र को जाने में,
तौला गया है रंज-ओ-दर्द अश्क़ के पैमाने में।

तेरी भीगी सी कश्ती इक राज़ करती है बयां,
तू देख, डूबा क्या-क्या है मेरे ग़म के ख़ज़ाने में।

इक माशूक़ थी वो भी, गुज़रे हुए फ़साने में,
इरादा था, सो छोड़ दिया कत्ल के उस खाने में।

ग़ाफ़िल रहा मैं हर झूठे प्यार के अफ़साने में,
जो छोड़ गया मुझको तन्हा, अश्कों के वीराने में।

नाज़िल हुए जब वो मेरी रूह की वृहदायत में,
ख़ुदा भी काफ़िर ठहरा उनके लिखे पैमाने में।


Sunday, May 25, 2025

विदाई के गीत।

तुम्हें हक़ है, तुम आगे बढ़ जाओ प्रिये,
मैंने तो ज़माने की बदहाली ओढ़ रखी है।
तुम कहाँ इस फटे कम्बल में सुख पाओगी,
तुम्हारी आकांक्षाएँ — नरम तकियों सी मुलायम हैं।
हमने तो एक आख़िरी सपना देखने का
हक़ भी खो दिया।

जब तक रहीं, राहत सी रहीं तुम,
नाउम्मीदी में आशा बनकर खिलीं तुम।
संघर्ष की हर मोड़ पर मुस्कुराती दिखीं तुम,
इन मुस्कानों में दुख छुपाकर —
एक शम्मा, उम्मीद की जला गई थीं तुम।

है तुम्हें अलविदा, प्रिये!
फिर किसी आपदा में मिलेंगे,
कभी खैरियत पूछने भर ही सही—
थोड़ी-सी गुफ़्तगू तो हो ही जाएगी।

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