कुछ कहना था तुमसे...
यूँ ही छुड़ा तो न दोगे?
मेरी सहूलियत को बहाना देकर,
रक़ीब की बाहों का उपहार तो न दोगे?
कुछ बचा रहा, वो चलती साँसों भर है ज़िंदगी।
वेदनाओं में संबल बन,
मुझे गिरा तो न दोगे?
हौसला देकर फिर कोई दग़ा तो न दोगे?
फिर अकेलेपन में छोड़ तो न दोगे?
हाड़-मांस की ये कश्ती कब की टूटकर —
वक़्त की रेत में अविलंब बह रही थी...
कोई झूठा ख़्वाब फिर से तो न बो दोगे?
उम्मीदों के दीपक की लौ भी बुझ चुकी।
घुप अंधकार ही है जीवन में अब शेष —
तिश्नगी नई दे,
फिर प्यासा ही तो न छोड़ दोगे?
मैं अकिंचन बैठा रहा,
अपने ही मन की कैद में,
जाने कैसे बसर रहा।
मेरे विरह का क़िला तोड़ डाला,
अतिक्रमण किया,
और उसे भ्रम कह डाला...
फिर कोई नया भ्रम — तो न दोगे तुम?
कई रिश्तों से रिसते हुए,
संघर्षों से,
विरह–वेदना के नीम–कश तीरों से।
अपनों के फरेब,
और प्रेम–विछोह की राख लिए —
अब क्या तुम भी…
उसी राख पर कोई सौगंध तो न दोगे?