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Friday, July 11, 2025

इब्तिदा-ए-इश्क: प्रथम मिलन

इब्तिदा-ए-इश्क़: प्रथम मिलन

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१. आरंभिक खंड:
तिरे फ़ेहरिस्त-ए-आशिक़ गुनगुनाते
तिरे रूप, रंग, साज-श्रृंगार के क़लमे।

लिख तो दूँ, तेरे क़ातिल यौवन के जलवे,
पर, रक़ीब, प्रेम-द्वंद्व में हार कहाँ मानते।

रूप–रंग–यौवन की चर्चा करते रहें रक़ीब,
हम सिमरन करते तेरा, ईब तू ही मेरा नसीब।

अज़ीयत-ए-हर्फ़ में, रकीब ढूंढे तुझमें तरतीब,
कुछ अल्फ़ाज़ जमे, थोड़ा चमके उनका नसीब।

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२. मिलन की स्मृति:
मैं लिखूँ वो एहसास, जो फूल–से खिले थे,
नीली चाँदनी के नीचे — जब हम मिले थे।

वो पहली मुलाक़ात थी, सावन की शुरुआत थी,
इक बूँद जो गिरी तन पे तेरे, इश्क़ की अलामात थी।

तेरे तन से ढलती बूँदें, पत्तों से गिरती शबनम सी,
भीगी खड़ी तुझे देखा, जैसे जन्मों की सौग़ात थी।

अहो! सौभाग्य जागा मेरा, जब तू मेरे पास थी,
शुष्क मौसम में भी तेरे रहमत की बरसात थी।

पहल-ए-तकरीर में तूने पूछा — वेदना का राज़,
टूटा विरह-संसार, तू नवचेतना की प्रतिघात थी।

प्रथम प्रणय-संध्या का यूँ मिला वरदान,
विरह की सारी पीर — हर गई तेरी मुस्कान।

Thursday, July 10, 2025

आपका आना

 आपका आना


एक कोयल की कुक से मानो

गूंजा सुना अकिंचन प्रांगण मेरा,
किंचित उन नथ बाली से गुजरी थी
एक रौशनी, भरा अंधियारा मन मेरा । 

आपका आना...

जैसे बहारों ने चुपके से
मेरे आंगन की चौखट चूमी,
जैसे किसी भूले गीत की सरगम
फिर से यादों की रात में गूंजी।

आपका आना—

कोई सौंधी बयार थी सावन की,
जो सींच गई सूखते मन की मिट्टी,
जो ठहर गई पलकों पर ओस बनकर,
जो उतर गई सांसों में नाम बनकर।

मैंने सुना था
प्रेम आता नहीं बताकर,
पर आपका आना...
जैसे नज़र का पहली बार ठहर जाना,
जैसे हौले से कोई कह दे — "मैं हूँ यहाँ..."

Wednesday, July 9, 2025

एक लम्हा प्यार का


एक लम्हा प्यार का ऐसा भी आया,
जब मैं तन्हाइयों की राहों में
बेखबर, खुद से दूर, चुपचाप बैठा था।

वो आई... चुपचाप, पर एहसास बनकर,
मेरे सर को अपने कंधों पे सुलाया।
थोड़ी राहत मिली,
सांसों में कोई सुकून सा घुल आया।

आँखें बंद हुईं, और ख़्वाब बनते गए,
कुछ मीठे, कुछ अनजाने, कुछ उसके साथ बुनते गए।

पर जब चाहा, उस ग़मगुसार को देखूं,
उसकी आंखों में खुद को पढ़ लूं,
तो प्रेम-निद्रा से जैसे ही जागा —
वो जा चुकी थी...
जैसे ख्वाबों की तरह,
जैसे कोई सहर का झोंका
जो आता है... बस छूकर चला जाता है।

🌺 क्या कह दूँ —

 (श्रृंगार, विस्मय, आत्मसमर्पण और प्रार्थना की एक नज़्म)

क्या कह दूँ —
एक नूर सा तू उतरा, इक महफ़िल हिल गया।
तेरे यौवन-श्रृंगार में, शायर ग़ज़लें भूल गया।

ग़ाफ़िल महफ़िल, ढूँढती फिरती तराने और तरन्नुम,
तेरी मधुर आवाज़ में, शायर नग़मे भूल गया।

एक कोने से टुकुर-टुकुर देखता मैं, दृश्य था हतप्रभ —
तुझ में डूबा, खो गया मैं, वक़्त के लम्हे भूल गया।

बेबाक हो कुछ यूँ कह गया —

नूर कह दूँ, या हूर कह दूँ,
हरश्रृंगार का फूल कह दूँ,
आश कह दूँ, काश कह दूँ,
या फिर श्रमिक-प्रयास कह दूँ।
सूर्य कह दूँ, चाँद कह दूँ,
या दिव्य चैतन्य प्रकाश कह दूँ?

तारीफ़ भी करूँ तो तेरी क्या करूँ?
मौन-विवश, तुझे बस निहारता रहूँ।


इक इशारा भर कर दे तू आज,
दर पे तेरे, पूरा दिल भी रख दूँ।

शूल से उग आए आशिक़ तमाम —
कहे तो, सबको उखाड़ के रख दूँ।

शब-ए-ग़म की तेरे शिफ़ा कर दूँ,
कह दे तू जो — तेरे सारे ग़म रख लूँ।

तू दे दे मुझे ज़रा थोड़ी-सी जगह दिल में,
तेरे ही दिल में — अपना कोई मकाँ रख लूँ।

Wednesday, July 2, 2025

ग़ज़ल: इस फ़न-ए-आज़माइश को क्या कहिए,

 इस फ़न-ए-आज़माइश को क्या कहिए,
कभी जाने-जहाँ, कभी अंजाने को — क्या कहिए।

तिरछी नज़र से घायल किया तूने मुझे,
हुनर फिर नज़रें फेर लेने को — क्या कहिए।

मुसलसल मुलाक़ातों में बही थीं मोहब्बतें रवानी,
नज़रअंदाज़ी के पैग़ाम भेजने को — क्या कहिए।

दीद-ओ-जल्वे का हुनर,है तेरी तारीख़ में क़ैद,
इशारा-ए-दीद भी न मिलने को — क्या कहिए।

पाक दरिया किनारे जब इश्के इदराक हुआ रौशन,
अहद-ए-वफ़ा किए, वादे टूटने को — क्या कहिए।

कभी चाय की चुस्की में हँसी थी तेरे नाम की,
अब तनहा बैठे फीकी चाय पीने को — क्या कहिए।

वो वादे-वफ़ा कर के भी गुफ़्तगू में न आए,
फिर हमें बार-बार आज़माने को — क्या कहिए।

रास्ता-ए-वादियों में हुई थी मुहब्बत की पहल,
बेमुलाक़ात ही अब बिछड़ने को — क्या कहिए।

Monday, June 30, 2025

तुम नहीं तो —

तुम नहीं तो —

हर कहानी अधूरी, रह गई कोई ज़िंदगानी सी लगती है।
हर प्यास, हर ‘काश’, हर प्रयास — कुर्बानी सी लगती है।

ये कविता, ये तुकबंदियाँ — अब अनजानी सी लगती हैं,
ग़ज़लें, नग़मे, छंद — सभी रूठी-रूठी बेगानी सी लगती हैं।

वक़्त ने जो दिखाए थे तुम संग होने के हसीन सपने —
ख़्वाबों की शरारती तहरीरें — सब नादानी सी लगती हैं।

ये शजर, ये नदी, ये बयारें, ये ऋतुओं की रवानियाँ —
बेख़ौफ़, बेधड़क — अब चुभती क़ातिलानी सी लगती हैं।

अब ख़्वाहिशों ने तलब-ए-लम्स की राहें छोड़ दी हैं,
रिश्तों की खाना-पूर्ति — महज़ एक अनमानी सी लगती है।

‘वृहद’-ऋतुओं की तासीरें — लाश पर नई परत छोड़तीं,
अंतिम संस्कार को अगुआनी करतीं, यजमानी सी लगती हैं।

~वृहद 

प्रेमोपनिषद्

 1.
प्रेम संदेह  है,
प्रेम आस्था है,
प्रेम — संदेह से
आस्था तक का रास्ता है।
2.
प्रेम संशय है,
प्रेम समाधान है,
प्रेम — संशय से
समाधान का ध्यान भी है।
3.
प्रेम उत्कंठा है,
प्रेम निवारण है,
प्रेम — उत्कंठा से
निवारण तक उपासना है।
4.
प्रेम उत्प्रेरक है,
प्रेम सम्पूर्ण है,
प्रेम — उत्प्रेरक से
सम्पूर्णता की कविता है।
5.
प्रेम सृजन है,
प्रेम विध्वंस है,
प्रेम — सृजन से
विध्वंस तक विस्तृत संसार है।
6.
प्रेम विरह है,
प्रेम मिलन है,
प्रेम — विरह से
मिलन तक, इंतज़ार है।
7.
प्रेम तृष्णा है,
प्रेम तृप्ति है,
प्रेम — तृष्णा को
तृप्त करती अमृत सुधा है।
8.

प्रेम नश्वर विस्तृत संसार है,
प्रेम अनश्वर ब्रह्म आधार है,
प्रेम — नश्वर से
अनश्वर तक योग संचार है।

Saturday, June 28, 2025

शांतनु की गंगा-सी

वो चुप है, ख़ामोश है, मौन है —
शांतनु की गंगा-सी।

हज़ारों प्रहेलिकाएँ उसके मुख पर मंडरातीं,
शांतनु की गंगा-सी।

प्रेम की धारा नित विस्फुटित बहती उससे,
शांतनु की गंगा-सी।

एक प्रश्न के किनारों पर ठहरी हैं सारी ख़ुशियाँ,
शांतनु की गंगा-सी।

न कोई आर्तनाद, न कोई विद्रोह,
बस एक मौन स्वीकृति —
धारण किए सागर तक बहती जाती,
शांतनु की गंगा-सी।

विमुक्त करने उतरी चंचलता में भी स्थिर,
शांतनु की गंगा-सी।

प्रेम अग्नि में भी वाद-काज़ के न छेड़ो,
शांतनु की गंगा-सी।

Friday, June 27, 2025

तेरे नाम की लकीर

 (वृहद की कलम से एक रक्तिम प्रेम आख्यान)

एक ब्राह्मण ने कहा था —
"तेरे नाम की लकीर नहीं है हथेली में..."

उठा खंजर, और पूछ लिया तड़पते दिल ने —
"हे ब्राह्मण! बता,
कौन सी लकीर खींच दूं नसीब में?"
खून जितना गाढ़ा — लकीर दिया तेरे नाम गढ़ हमने।

अब भी कलीरे तेरे हाथों में किसी गैर की हैं,
सर टीका और साज-श्रृंगार —
अमृत किसी और सुहाग की है।

अस्पताल की चौखट पर कोई तो लेने आया था मुझे,
टूट कर वो भी कह गया —
"तू खुद ज़िंदगी से रुख़सत हो,
ज़िंदगी उसके नाम कर गया ..."

मन का मौन


मन की जाने कौन?
मन का मौन, मन का मौन
दिल की सुनता है कौन?
मन का मौन, मन का मौन

तुरही ही सी बजती,
अनहद को सुनता कौन?

मन का मौन, मन का मौन

तन में विस्तृत होता मन,
छाया बन छूता गगन —
पर उस छाया की छाया को,
पल भर छू पाता कौन?

मन का मौन, मन का मौन

मन की जाने, मन का मौन,
मौन को फिर,
जाने कौन, जाने कौन?

निःशब्दों में रचती भाषा,
बिन अर्थों के होते अर्थ —
धूप छाँव का एक समर्पण,
जैसे ध्यान करे निर्वर्त।

मन का मौन, मन का मौन

साक्षी बना जो बैठा चुप,
उसी ने पाया मौन का स्वरूप।
बाक़ी तो सब बोले जाते,
पर खोते हैं वह मौन रूप।

मन की जाने कौन?
मन का मौन, बस मन का मौन।

"नींव" – एक आत्मगाथा

(पुनःनिर्माण की कथा)

जब इमारत की नींव ही सुदृढ़ न हो,
तो पूरी इमारत को तोड़ देना चाहिए।
मैंने भी यही किया।

बार-बार तोड़ा अपने भवन रूपी अहम को,
हर बार फिर से निर्माण किया,
फिर तोड़ा, फिर जोड़ा —
जब तक कि ये बोध न हो गया—

कि खुला आसमान ही मेरी छत है,
और धरती मेरा प्रांगण।

प्रकृति के ये स्पर्श-दर्शी तत्व —
ये पवन, जल, अग्नि, वृक्ष,
और जीव-जंतु...
ये सब, मेरे अपने हैं।

अब कोई ‘किंतु’ नहीं, कोई ‘परंतु’ नहीं।
न कोई सीमा, न कोई सिरा।
न मुझमें मैं रहा, न बाकी कोई पराया।

मैं मिट गया तो बस 'एकत्व' ही बचा — वही नींव बन गया।

🌹ग़ज़ल: "कहां छुपाओगे"🌹

हमारे अंजुमन से निकलकर कहां जा'ओगे,
फरेबी हो, पर इंसानी दिल कहां छुपा'ओगे?

प्रेम का दरिया नहीं, अथाह सागर हैं हम,
हमारी लहरों की मौजों के पार कहां पा'ओगे?

तुम्हारे नाम से महका था ये वीरान गुलशन,
अब उसकी ख़ुशबुएं तुम औरों में कहां पा'ओगे?

टूट कर बिखरे तो हैं, मगर शान से बिखरे हैं,
ऐसी शीशे सी मिसाल तुम और कहां पा'ओगे?

लगे हैं ज़ख़्म लेकिन फिर भी मुस्काते हैं हम,
ये सलीक़ा-ए-तहज़ीब तुम और कहां पा'ओगे?

कभी जो लौट कर आओ, तो रस्ता भूल जाना,
हमारे दर पे आए हो चालाकीयाँ कहां पा'ओगे?

"वृहद" का नाम अब रग-ओ-जाँ में बस चुका है,
ये नग़्मा-ए-हक़ीक़त, ये ग़ज़ल कहां छुपा'ओगे?

~वृहद 

🌹फ़ेहरिस्त-ए-मसाइब 🌹

(एक इश्क़ के क़र्ज़ की मुकम्मल गवाही)

मसाइब–ए–उल्फ़त, ढूंढती रहीं तेरी राहें जानाँ
फ़ेहरिस्त-ए-मसाइब की न घटती किश्तें जानाँ।

कभी नक़्श बन के सीने पे उभरते तेरे हर्फ़ जानाँ,
कभी ख्वाबों में तामीर हुए तेरे लम्स के रिश्ते जानाँ।

तेरी याद की ताबीरों में कुछ तल्ख़ियाँ थीं जानाँ,
फिर भी दिल ने लुटा दीं मोहब्बत की नेमतें जानाँ।

ज़िक्र तेरा किया तो अश्क़ों ने भी चालें बदलीं, 
लरजते लब न कह पाए दिल की खामोश बातें जानाँ।

गुज़िश्ता लम्हे भी तन्हाई से शिकवा करते रहे,
हर साँस में महकती रहीं तेरी उलझी सिसकें जानाँ।

‘वृहद’ की तहरीरों में तू आज भी यूँ बसी है,
हर मिसरे से छलकती हैं तेरी नज़्में जानाँ।

✒️ वृहद
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🪶 शब्दार्थ-संग्रह:

शब्दअर्थ
मसाइब-ए-उल्फ़त:प्रेम में आने वाली मुसीबतें, कष्ट
फ़ेहरिस्तसूची (List)
किश्तेंकिस्तों में बंटा हुआ क़र्ज़ या दर्द
नक़्शछवि, निशान
लम्सस्पर्श (touch)
ताबीरसपने की व्याख्या, प्रतीकात्मक अर्थ
तल्ख़ियाँकड़वाहटें, तीखे अनुभव
नेमतेंईश्वरीय उपहार, कृपा (Blessings)
चालेंगति, बहाव
सिसकेंरुलाई की धीमी आवाज़
तहरीरेंलेखन, रचनाएँ

संघर्ष


(एक प्रेरणात्मक कविता)

जीवन में संघर्ष के दौर ने बहुत कुछ सिखा दिया,
कामयाबी–नाकामयाबी को एक सा बना दिया।

अब शिकायत नहीं है किसी राह से मुझे,
हर ठोकर ने चलना सिखा दिया।

कभी आँधी बनी, कभी बारिश सी बरसी,
हर मौसम ने खुद पे यक़ीन दिला दिया।

जो खोया, वो सबक़ बन गया मेरी सोच में,
जो पाया, उसने भी संजीदा बना दिया।

अब न मंज़िलों की जल्दी है, न रास्तों का ग़म,
सफर ने ही जीना सलीक़े से सिखा दिया। 

Thursday, June 26, 2025

यादों की ख़ामोश चाय

 
सराहना की गूंज में
एक मूक-सी आवाज़ छोड़ गए हैं वो,
हमसे बिछड़कर
एक अमिट-सी याद छोड़ गए हैं वो।

कभी फुर्सत में
हमारे सवालों को मौक़ा न दिया,
पर हसरतों की गठरी पर
एक अधूरा-सा ख़्वाब छोड़ गए हैं वो।
स्वप्न के अहसास में
कहीं गहराई से उतर गए हैं,
पीछे मुड़कर देखने की अदा में
बिना शब्दों के कई संवाद छोड़ गए हैं वो।

खुशियों की परवरिश की हमने,
पर ग़म की मिट्टी में
जाने कितने अरमान छोड़ गए हैं वो।

उस आख़िरी चाय की प्याली की
चुस्कियों में
मुस्कान का अंदाज़ छोड़ गए हैं वो।

शायद कहीं केतली में
सौंधी सी ख़ुशबू लिए
वही चाय अब भी मंद आँच पर बन रही हो,
तुम्हें फिर से एक बार देखने को
वो अनजानी-सी नज़र आज भी तरस रही हो।

और जैसे ही हम घर आए,
ना जाने कैसे जान लिया —
और मुस्कुराकर पूछ ही लिया,
"देर तो नहीं हुई?"

इस ज़िक्र-ए-फ़िराक़ में
ज़िन्दगी की कशमकश छोड़ गए हो...
हाँ, तुम कुछ ऐसा छोड़ गए हो।

~वृहद

Wednesday, June 25, 2025

इरादा — वृहद

 ए सुनो न,
कुछ कहना था तुमसे...

हाथ थामा है —
यूँ ही छुड़ा तो न दोगे?
मेरी सहूलियत को बहाना देकर,
रक़ीब की बाहों का उपहार तो न दोगे?

गुज़री है विरह की वेदनाओं में आधी ज़िंदगी,
कुछ बचा रहा, वो चलती साँसों भर है ज़िंदगी।
वेदनाओं में संबल बन,
मुझे गिरा तो न दोगे?
हौसला देकर फिर कोई दग़ा तो न दोगे?

मेरे ज़ख़्मी दिल को बहला कर,
फिर अकेलेपन में छोड़ तो न दोगे?

आशाओं के अगिनत बवंडरों में झूल कर,
हाड़-मांस की ये कश्ती कब की टूटकर —
वक़्त की रेत में अविलंब बह रही थी...
कोई झूठा ख़्वाब फिर से तो न बो दोगे?

मेरा प्रेमाशियाँ — जाने कब का उजड़ चुका,
उम्मीदों के दीपक की लौ भी बुझ चुकी।
घुप अंधकार ही है जीवन में अब शेष —
तिश्नगी नई दे,
फिर प्यासा ही तो न छोड़ दोगे?

बिरहा की दीवार सजा,
मैं अकिंचन बैठा रहा,
अपने ही मन की कैद में,
जाने कैसे बसर रहा।

एक छुअन से तुमने
मेरे विरह का क़िला तोड़ डाला,
अतिक्रमण किया,
और उसे भ्रम कह डाला...
फिर कोई नया भ्रम — तो न दोगे तुम?

अगिनत घाव हैं —
कई रिश्तों से रिसते हुए,
संघर्षों से,
विरह–वेदना के नीम–कश तीरों से।
अपनों के फरेब,
और प्रेम–विछोह की राख लिए —
अब क्या तुम भी…
उसी राख पर कोई सौगंध तो न दोगे?

Monday, June 23, 2025

थे अधूरे में पूरे,

 थे अधूरे में पूरे,
ख़्वाब भी, हक़ीक़त भी,
अरमान भी, परितोष भी,
उलझनों में बसर तो रही,
मगर... ज़िंदगी कहीं।

इक कहानी जी थी
हमने किसी ज़माने —
इक साथ की आरज़ू,
बेकरारी की रातें थीं।
तन्हाइयों में भी उनके
चंद यादों के गुलशन थे —
जो महकते थे...
हिज़्र की ख़िज़ाँ में भी।

उन उदास लम्हों की
अनकही गुहारों में,
प्रेम की बुझती पुकारों में,
टिमटिमाती रातों की
जुगनू-सी जलती रातों में —
एक प्रतीक्षा... जीवंत रही।

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ख़ुदा ने दुआओं में इक नूर बख़्शा,
रहगुज़र-ए-निगार में इक हूर बख़्शा।

उनकी दीद में तरन्नुम गा रहे हैं,
आजाद हो उड़ा परिंदा, सुदूर बख़्शा।

मन की कैद में उम्र की सज़ा काट दी,
उजास हमें उम्मीद का शुऊर बख़्शा।

नफ़स नाज़िल किया उन्हें हममें,
मोज़ज़ा ने जिंदा किया... शकूर बख़्शा।

वृहदाभार! आपकी सोहबत में,
नेमतें-ए-इश्क़ की दौलत भरपूर बख़्शा।

Sunday, June 22, 2025

🌹 ग़ज़ल: असर-ए-दीद से कैसा राब्ता हो गया है। 🌹

उनकी असर-ए-दीद से कैसा राब्ता हो गया है,
बहती क़लम में मानो वो वाबस्ता हो गया है।

हर स्याही में उनकी याद की ख़ुशबू बस गई,
हर सफ़्हा मेरी रूह का आरास्ता हो गया है।

इक तेरी मुस्कान ने जबसे मुझे छुआ है,
अल्फ़ाज़ भी जैसे इश्क़ का वास्ता हो गया है।

कल तलक जो ख़ामोश थी ये वीरान सी तहरीर,
तेरे ज़िक्र से हर लफ़्ज़ गुलिस्तां हो गया है।

मुझे भी नहीं ख़बर थी, मैं इतना तुझमें गुम हूँ,
कि जो मैं लिखूँ, वही मेरा आस्ताँ हो गया है। 

शब्द अर्थ

असर-ए-दीद: नज़र का प्रभाव, देखने का असर

राब्ता : संबंध, जुड़ाव

वाबस्ता: सम्बद्ध, जुड़ा हुआ

सफ़्हा :पृष्ठ, पन्ना

आरास्ता :सुसज्जित, अलंकृत

वास्ता : संबंध, जुड़ाव का माध्यम

तहरीर :लेखनी, लिखी गई चीज़

गुलिस्तां :पुष्पवाटिका,

बाग़; सुंदरता और भावों की जगह

आस्ताँ: चौखट, दर, आस्था या प्रेम की मंज़िल

गुम खोया हुआ।

Wednesday, June 18, 2025

✨ तेरी तारीफ़...

तेरी तारीफ़ चंद लफ़्ज़ों में कह दूँ...
ऐसे अल्फ़ाज़ कहाँ से लाऊँ?
जो तेरे नूर को समेट लें,
वो मिसरे, वो आवाज़ कहाँ से लाऊँ?

मसनवी लिख तो दूँ तेरे ख़याल में,
पर वो उम्र कहाँ से लाऊँ?
हर शेर में बस तू ही तू हो,
ऐसी तदबीर ओ ताबीर कहाँ से लाऊँ?

जब भी तुझसे मिलता हूँ,
वक़्त थम सा जाता है,
तेरे चेहरे पे रुकती हैं सदियाँ,
तेरे स्पर्श में जादू अनकहा है।

मगर वक़्त-ए-रुख़्सत की हक़ीक़त,
हर बार मुझे तोड़ जाती है,
तेरे जाते ही जैसे तन्हाई,
मेरी साँसों में सिरहाने रख जाती है।

काश, तू मेरी पहलू में शामिल हो जाए,
हर सहर की तहरीर में तुझसे मिलूँ,
और मैं —
तेरी तारीफ़ों की कविता बन जाऊँ।

~वृहद 

Monday, June 16, 2025

बाबूजी – छाँव और आधार

"पिता… वो नाम जो कई बार हमारी कविता में नहीं आता,
क्योंकि उन्होंने कभी अपने हिस्से की कविता कहने ही नहीं दी।
वो सिर झुका कर हमारे लिए छाँव बनते गए —
और हम समझते रहे कि छाँव तो होती ही है — अपने आप।
इस कविता में मैंने अपने बाबूजी को लिखा नहीं,
बस उन्हें धीरे-धीरे महसूस किया है…"

– वृहद

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