(पुनःनिर्माण की कथा)
जब इमारत की नींव ही सुदृढ़ न हो,
तो पूरी इमारत को तोड़ देना चाहिए।
मैंने भी यही किया।
बार-बार तोड़ा अपने भवन रूपी अहम को,
हर बार फिर से निर्माण किया,
फिर तोड़ा, फिर जोड़ा —
जब तक कि ये बोध न हो गया—
कि खुला आसमान ही मेरी छत है,
और धरती मेरा प्रांगण।
प्रकृति के ये स्पर्श-दर्शी तत्व —
ये पवन, जल, अग्नि, वृक्ष,
और जीव-जंतु...
ये सब, मेरे अपने हैं।
अब कोई ‘किंतु’ नहीं, कोई ‘परंतु’ नहीं।
न कोई सीमा, न कोई सिरा।
न मुझमें मैं रहा, न बाकी कोई पराया।
मैं मिट गया तो बस 'एकत्व' ही बचा — वही नींव बन गया।
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