तुम नहीं तो —
हर कहानी अधूरी, रह गई कोई ज़िंदगानी सी लगती है।
हर प्यास, हर ‘काश’, हर प्रयास — कुर्बानी सी लगती है।
ये कविता, ये तुकबंदियाँ — अब अनजानी सी लगती हैं,
ग़ज़लें, नग़मे, छंद — सभी रूठी-रूठी बेगानी सी लगती हैं।
वक़्त ने जो दिखाए थे तुम संग होने के हसीन सपने —
ख़्वाबों की शरारती तहरीरें — सब नादानी सी लगती हैं।
ये शजर, ये नदी, ये बयारें, ये ऋतुओं की रवानियाँ —
बेख़ौफ़, बेधड़क — अब चुभती क़ातिलानी सी लगती हैं।
अब ख़्वाहिशों ने तलब-ए-लम्स की राहें छोड़ दी हैं,
रिश्तों की खाना-पूर्ति — महज़ एक अनमानी सी लगती है।
‘वृहद’-ऋतुओं की तासीरें — लाश पर नई परत छोड़तीं,
अंतिम संस्कार को अगुआनी करतीं, यजमानी सी लगती हैं।
~वृहद
~वृहद