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Monday, June 30, 2025

तुम नहीं तो —

तुम नहीं तो —

हर कहानी अधूरी, रह गई कोई ज़िंदगानी सी लगती है।
हर प्यास, हर ‘काश’, हर प्रयास — कुर्बानी सी लगती है।

ये कविता, ये तुकबंदियाँ — अब अनजानी सी लगती हैं,
ग़ज़लें, नग़मे, छंद — सभी रूठी-रूठी बेगानी सी लगती हैं।

वक़्त ने जो दिखाए थे तुम संग होने के हसीन सपने —
ख़्वाबों की शरारती तहरीरें — सब नादानी सी लगती हैं।

ये शजर, ये नदी, ये बयारें, ये ऋतुओं की रवानियाँ —
बेख़ौफ़, बेधड़क — अब चुभती क़ातिलानी सी लगती हैं।

अब ख़्वाहिशों ने तलब-ए-लम्स की राहें छोड़ दी हैं,
रिश्तों की खाना-पूर्ति — महज़ एक अनमानी सी लगती है।

‘वृहद’-ऋतुओं की तासीरें — लाश पर नई परत छोड़तीं,
अंतिम संस्कार को अगुआनी करतीं, यजमानी सी लगती हैं।

~वृहद 

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