एक लम्हा प्यार का ऐसा भी आया,
जब मैं तन्हाइयों की राहों में
बेखबर, खुद से दूर, चुपचाप बैठा था।
वो आई... चुपचाप, पर एहसास बनकर,
मेरे सर को अपने कंधों पे सुलाया।
थोड़ी राहत मिली,
सांसों में कोई सुकून सा घुल आया।
आँखें बंद हुईं, और ख़्वाब बनते गए,
कुछ मीठे, कुछ अनजाने, कुछ उसके साथ बुनते गए।
पर जब चाहा, उस ग़मगुसार को देखूं,
उसकी आंखों में खुद को पढ़ लूं,
तो प्रेम-निद्रा से जैसे ही जागा —
वो जा चुकी थी...
जैसे ख्वाबों की तरह,
जैसे कोई सहर का झोंका
जो आता है... बस छूकर चला जाता है।
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