poet shire

poetry blog.

Friday, December 15, 2017

अदायगी



बड़े ज़ोर की जुलाब लगी थी,
पेट में अजीब सी हलचल मची थी 
कपल पसीने से तर था,
चेहरे बरबस ही मुस्कुरा रहे थे। 

और एक वो थे साथ में,
साथ में ही रेस्टरूम जाने की ज़िद कर बैठे ,
और कह दिया की झूठ बोलते हो,

कोई तो रोक लेता 
और कुछ समझ भी देता,
हाथ में तकिया था बेरहम के,
सीधा पेट में दे मारा मेरे,
इज़्ज़त फिर भी बाल बाल  बच गयी 

शुक्र करां तेरा रब्बा,
मेरी खैर मान गया,
जुलाब अपनी जगह और 
उनका दिमाग अपनी जगह चला गया। 

फिर जाने कब ऐसी लड़ाई होगी 
या बस शब्दों की हीं गुथम गुत्थाई होगी।

माघ पूस या बैसाख़ सावन 
जाने कब मिलूं मैं फिर तुमसे बांके साजन। 


आपनो ख्याल भी दो




क्या करना है आपनो
खुल के दें बताये,
चटनी चाटन् चाट चाट ,
भुखवा मिट ना पाये . 

रूखे मनवा भेदन, भेद है
सुखल मनवा हुआ असाढ

बदरी पडी सवाल मे,
बुझनी बुझ बुझ जाल
माया अतीरे आपनौ
बुझनी बुझ ऩ पाये



पहलु के अऩजुमन

पहलु के हर अऩजुमन मे सोचा
आपको न सोचने की गुस्ताखियोंं को। 
पाया हमने चहुंओऱ उजाले
आपके हीं एहसासों के। 


दीदार-ए-जश्न ख्याल।

हमने देखे हैं उनके हुस्न की ताबीर पे रंग सभी,
बस खामोशियों के रंग न समझ पाये हम कभी। 

प्रहेलिका जो गुफ्तगू के आगाज़ कर दे फिर से
इल्म-ए-जज्बात उनके, न समझ पाये हम कभी।

यूँ खुद को खामोशियों में कैद कर बैठे हो क्यों
कद्र-ए-जहां लुटाते थे तुम भी हम पे कभी
आज उन निशानियां-ए-गुलिस्तां पे बैठे हो क्यों
खिदमते- हिदायत थे जिनके तुम कभी।

न कर ऐ परवरदिगार इन्तेज़ार-ए-परस्तिश-बेआबरू
संगम के वास्ते चुने जज़्बात अभी बाकी हैं सभी
ईद के चाँद पे रोजा टूटा करते हैं मौला जानते हो ये तुम भी
बस ईद के चाँद वो मेरे दिखते नही कभी 
ये इंतेज़ार-ए-बहार किसी रोजा से कम तो नही। 

किस पल टूटेंगे ये रोज़ा इन्तेज़ार के
बस ये न जान सके हम कभी
देखे थे हमने उनके हुस्न पे जो रंग सभी
दीदार-ए-जश्न झलक की हसीं कल्प तो नही।

Thursday, December 7, 2017

रोज़ा-ए-इंतज़ार

जाने क्यों हैं ये रोज़ा इंतज़ार के,
जब परवरदिगार के इशारे भी हैं,
है मौसमों की तलब भी कहीं,
और तेरे नेक इरादे भी हैं।

कुछ फिराक़-ए-जिहमत की फितरत भी,
कुछ ताक़ भी है, कुछ शौक भी है,
फिर क्यों ये खालीपन उभर आया
मिलन के दो पैग़ाम से?

तो तोड़ ही दें अब हम,
ये रोज़ा इंतज़ार के।


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ये बयारें, ये बहारें,
तेरी ही गुफ़्तगू दोहराती हैं,
तो क्यों न हम भी अब तोड़ दें
ये रोज़ा इंतज़ार के?

पनाहों में एक-दूजे की,
कुछ पल इत्मीनान के जीत लें।


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तख़्त-ए-नज़ाकत को उन्मुक्त कर,
दे ऐसी कोई मिसाल,
जैसे कोई मशाल धधकती रही हो
हमारे-तुम्हारे सीने में बेहाल।

जो बुझ नहीं सकती, बिन दीदार के,
तो निगाहों के सुकून में क्यों न समा लें
महताब के श्रृंगार के?

आओ, तोड़ दें ये रोज़ा इंतज़ार के।

इंतज़ार के मोती



दिल में जो दबा रखे हैं जज़्बात आपने
कभी यूँ ही खुलने न दीजिएगा
जिन राहों पे हमें साथ ले चलने की ख़्वाहिश थी
वक़्त की मझधार में घुलने न दीजिएगा।

ये प्रेमाश्रु मोतियों से बिखरते रहेंगे
आप ही के इंतज़ार में
आपकी राहों में सजा देंगे हम ये मोती
इंतज़ार में जो हमें भुला दीजिएगा।

मिलन की तहज़ीब



शाही लखनवी तहज़ीब 
शायराना अंदाज़ उर्दू की जुबां 
और धड़कने पंजाबी हैं 
मोहतरमा ! क्या जवाब है आपका 
खय्याम से ख्याल 
ग़ालिब की ग़ज़ल सी लगती हैं आप। 

जाने कब हो मिलन ग़ज़ल से 
पाक दिन के इंतज़ार में 
काट रहे हैं लम्हे जाने कब से। 


Friday, December 1, 2017

बिछडन .

प्यार करने वालो से बिछड़ा नहीं करते
एहसास के धागे सांसो में पिरो कर
जिया करते हैं।

एक तस्सव्वुर है की तू जाने जिगर है
यही तकल्लुफ भी, है सुकून भी
एक पहलु भी, है  इंतज़ार में तू भी कहीं
 एक अरमान, है आरज़ू का आसमान भी।

अँखियाँ चार हुई रही दिल्लगी कुछ बाकि
दिल्लगी के अरमान घुट घुट पिया नहीं करते

मिली है ज़ुल्मत ए  शब् तो क्या हुआ 
हो तेरा साथ साथिया तो  फ़क़त जुदाई क्या चीज़ है।  
बिरहा बियोग कुछ कम गम तो नहीं देता 
तस्वीर आईने की कुछ कम  बेरुखी  तो  नहीं 
हसरते-इंतज़ार कुछ कम  भ्रम तो नहीं देता। 

फिर भी उल्लास उमंग मन का दफ़न किया नहीं करते 
अट्टहास समय के पे रुदन किया नहीं करते 
पास आने की आस को  दहन  किया नहीं करते 
मिलन की अभिलाष का क़त्ल यूँ  किया नहीं करते 
दिल्लगी करने वालों को दिल से कभी जुदा किया नहीं करते। 




Wednesday, August 30, 2017

स्याही एक आँसू – जब कलम ने खुद से बात की…



एक कलम थी खोई-खोई सी,

एक स्याही के आँसू रोई-रोई सी।
काग़ज़ के कुछ टुकड़े थे — बिखरे, कोरे से,
अरमान जगे थे… सोए-सोए से।

कुछ तस्वीरें जमी थीं आँखों में,
जिनमें लिपटे हिए, दर्द में समोए थे।
संगीत बने थे जो निकले थे
धड़कनों की धुन से—
हमने उन्हें छंद और नग़मों में पिरोए थे।

शैलाब उठा चंचल मन में—
"अंजाम-ए-फ़िक्र से क्या होता है?"
नश्वर जग है चंद पलों का,
और उन चंद पलों को हमने
आँसुओं में ही खोया है।

नीली-नीली स्याही बहती थी,
जाने क्या कुछ न कहती थी।
शब्दों का मायाजाल बिखेरती—
या बस कर से करती क्रीड़ा थी?

या फिर मन,
उन स्याही के आँसुओं में
चुपके से रोया है?

Friday, March 3, 2017

ज़िन्दगी का बसेरा

कभी कोहरे है यूँ ज़िन्दगी में
कभी काले बादलों  का घेरा
छणभंगुर खिलखिलाती धुप कभी
कभी नाराज़गी का अँधेरा
न जाने किस ओर छुपा हो
मेरी ज़िन्दगी का बसेरा 

तुम अस्तित्व मेरा

मेरी ज़िंदगी में कविता से भरी एक रोशनी हो तुम
तुम बिन ना कविता है ना रौशनी.
मेरे ज़िंदगी के अस्तित्वा की सचाई है तुमसे जुड़ी
तुम बिन ना अस्तित्वा है ना सचाई


Sunday, February 19, 2017

बेवफा झुमके

रात सजी थी चेहरे पे तुम्हारे
बेवफा झुमके कान को देगा दे गए 
आत्मविभोर हुआ मन तुम्हारा,
जो पड़े मिले वही एक राज के अँधेरे में
खिल गयी उषा से  चेहरे की रौनक तुम्हारी
बालम ! बरबस मुस्कुरा उठे चित तुम्हारे।

क्या एक पेशगी बाकि रह गयी है ?

मन चेतन में आवाज़ सी गूंज रही है
नित पुकारती एक
आकर्षण मनो जैसे कोई,
मैं ही गुम हूँ इस दुनिया में
मेरा भी एक यार छुपा रह गया
दिल के किसी अंधियारे में। 




Saturday, February 11, 2017

यादों की कुछ गमगीन शामें




यहाँ है दवा की दुकान
सामने है मौत के फरमान
कुछ तो लोग जैसे
जनाजो के जश्न मानते है
तो कुछ शमशान को अपना घर बनाते है
जोखिम -ऐ - दस्तूर जिंदगी
तो क्या हुआ हम तो मौत को भी
सहोदर की तरह गले लगाते  हैं
हैवान - ऐ- जिल्लत तू  जिंदगी, तो क्या हुआ?
हम तो शोलों  से भी शबनम चुराते हैं


जारी कर दें यम आज की रात
फरमान आखिरी सांसो का
हम तो लहरो पे भी आशियाँ बनाते हैं
हर सांस गिन गिन  कर
तुम्हे ही समर्पित कर जाते हैं

है तन्हाई आज दुल्हन बनके बैठी मेरी
तो क्या हुआ?
हम झींगुरों से शहनियां बजवायेंगे
खामोशियों की बारात सजाकर  ले आएंगे
तन्हाई को आज हम हमसफ़र बनाएंगे


कुछ गुफ्तगू यु अधूरे  रह जायेंगे
हमने जगती रातों में सोचा न था
इंतज़ार हर भोर को किया हमनें जाने कितनी
शामों का



काली घनेरी चादर पे बिछ जाते  हैं तारे तमाम
याद आ जाती है कुछ अधूरे से  अरमान
हम हर अरमानों के तिनको से
अधूरी आरजुओं को जोड़ कर
एक घर बनाएंगे
घर का हर कोना
तुम्हारी ही यादों से सजायेंगे

Friday, October 21, 2016

T Path

Standing at a ‘T’ junction,
Observing the fate of trials
Writ of karma
What may decree?
From the brink of success
To path of failures
Converged to roads
Thus traveled,
Less mattered.

A road that never ends
With breathing dust for livings
And the cruise of wanders

A road becomes home
While,
Chasing the horizons
Of dawn
And
Of dusk
Some skies white
All of the night
Some dark
All through the day

Some drops are left
On the brink of my eyes
A drop shines saffron
An offering to the Sun


Feeling and realizing the love of Mother Nature
The craze and smog of ambiances
Ambitions, passions and enthusiasms,
When Cuddles with mother earth
A spirit awakens,
From the sleep of ignorance. 

Tuesday, December 17, 2013

संगिनी

     


 बलैइयाँ उतारतीं हैं
ये निशा अपने रंग से
जो घटा सावन की
छ्टा छ्ट रही है कुछ
पावस की हल्की फूलकारियों से
ये बूँदें बन गयी है
जो छलक पड़ी है कुछ पहले
जब जग सोना हो दो पल को .

कहीं ये शाम फिर से
शबनमी ना हो जाए
इन बयारों की मस्ती मे
मधम मधम
जो बह चली फिर
आँधियारे से कुछ पहले
संग संगिनी बनके

तन मन बहकाने को.

Monday, May 27, 2013

तन्हाई |

आज भी घनी दोपहर में,

लू की तन उधेड़ती थपेड़ों में,

धूल भरे खेतों से आगे,

कहीं रेगिस्तान बने मैदानों में,

है कराहती एक पोखर,

तरस रही हैं दो बूँदें पानी को।


उसी पोखर में,

एक मीन प्यासी बिलख रही है,

दो बूँदें पानी से सनी मिट्टी में।


उस हल्की सी भीगी मिट्टी से,

एक सौंधी सी खुशबू उड़ चली है,

एक शामियने में,

जहाँ आज भी बैठी है

तन्हाई, मेरी दुल्हन बनकर।

Wednesday, May 1, 2013

Chastity


o lord! bestow upon me the boon of chastity,
Endow me with power masculinity,
Fill me with serene humanity,
Be me an ascetic sober, a man of spirituality,
God ! sovereignty ,broaden limits of my abilities,
Cast upon me the boon of chastity.

Haste i not, to sophisticate my deeds,
Mannerism , Behaviorism, be i best at it,
Gentleness of nature be decreed within me
womanizing lust of adulterous "feels"
I offer my "it all" to thee,
purify my thoughts for potentiality.
Grant me the boon of chastity

Wednesday, February 6, 2013

jeremiad


"Brutus" passed, has some ages, left in me
convincing me ethics, ascetics and sages
polite policies don't sue the righteousness
anymore, but one luciferious angel entangles
blinding,building my pride over the riches, worthless
swaying me, to and fro,
toying me, he-ho ! kudos.

The slicing and piercings do they really do
and mumble with humble hymn, is it pure?

sadist ascetics, is it true?
spiritual ritual i see down beneath.

And the pyre mourns, flames,flames it pour,
does it scream?, or does it roar?,
come play with me some more.

sigh-neigh, i'm on toe,
bring me some more foes.

Tonight, twilight fasts till dawn casts
some "shadows" in meadows
sweat to become dark in the wrath
of the rider of seven stallion, brilliant,
with his rainbow and raining arrows.
twitch, flicker and vanish while you shiver,
pursuit- pursuit, i'll pursuit, till last of the quiver.

rhyme rhyme goes arrow in row,
blasphemy blasphemy why did thou bestow.

do i die a righteous cause?
when atheist in me pulls over and over its brows.



Sunday, January 27, 2013

कहीं खोया खोया रहूँ ।

आ आलिंगन में बांध लूँ मैं,
तम्हे कभी न जाने दूँ मैं,
गेशु घने की छांव में , ये सारी  उम्र ही गुजर दू मै ,
तेरो अधरों की मुस्कान को मैं प्यार में बांध लू,
कभी जाने न दू मै।
कमल कोपल सी कमली नयन शुशोभित पे,
दैदिप्प्य संवार दू मै।
इस तन आवरण से जिससे तू मुझे रिझा रही हो ,
उधेड़ कर इनको तम्हे पा लूँ मैं,
इतना प्यार करूँ इतना प्यार करूं मैं,
कभी जाने न दू मैं।

तुझमे यूँ  डूबा-डूबा सा रहूँ मै ,
की मैं कौन हूँ , ये भी भूल जाऊं मैं,
और कभी देखूं  कभी अक्श कोई ,
तुमको ही पाऊँ मैं।
तेरी हर अदा को कविता में देखा करूँ ,
हिये में तस्वीर तेरी नित उकेरा करूँ मैं,
हर कला की हर साधना में साधा करूँ मैं,
आलिंगन में बांध लूँ,
कभी न जाने दूँ मैं।

रात दिन तम्हे लिखता रहूँ,
तुझमे डूबा डूबा कहीं खोया खोया रहूँ मैं।


Wednesday, January 16, 2013

Trapped in blue pearl

The crystal shine on that blue pearl was a little purple, a lil' hazy,
And shine on the green was added with a Ry-sounded greenery.
The bliss of ambiance was making it divinely.
I couldn't sleep the whole night,
'Cause there was no night, no day—
Just the shine of pearl, which was a lil' purple and hazy?

I could plough the field and sow the seed all day long,
And there were no days that we could count.
I could wait here all the years and
See how the flower in the field grows and blooms,
'Cause there was no tiredness, just lil' satisfaction—
Seeing it blooming, and the aroma
Would give the meaning to the shine—
Shine of blue-purple, which was purple and hazy?

The oceans we depart don't know the distance to the other shore.
All I know—I got a boat, and I could row all day long.
And the days would never be long enough.
And there is no night there, in the clear pearl shine.
The shrine was in the wilderness, and 'twas the most civilized manner,
Where I lay waiting, drifting slowly but surely.
I'll reach that shrine most beautiful,
And escape the crystal shine of that blue pearl,
That was a lil' purple, a lil' hazy.

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