आज भी घनी दोपहर में,
लू की तन उधेड़ती थपेड़ों में,
धूल भरे खेतों से आगे,
कहीं रेगिस्तान बने मैदानों में,
है कराहती एक पोखर,
तरस रही हैं दो बूँदें पानी को।
उसी पोखर में,
एक मीन प्यासी बिलख रही है,
दो बूँदें पानी से सनी मिट्टी में।
उस हल्की सी भीगी मिट्टी से,
एक सौंधी सी खुशबू उड़ चली है,
एक शामियने में,
जहाँ आज भी बैठी है
तन्हाई, मेरी दुल्हन बनकर।
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