शीर्षक: लालची शहर
(एक मौसम की मृत्यु पर शोकगीत)
तुम्हें पता है,
बड़ा विवश सा दिखा एक शहर,
अपने ही कारनामों में गुम,
इतना मग्न रहा
कि कब क़ुदरत ने उससे
दिन का जून छीन लिया,
उसे इल्म तक न हुआ।
अब हवाओं में अनमाने मौसमों का मिज़ाज है,
जैसे क़ुदरत भी भूल बैठी हो
अपना सहज स्वभाव,
या शायद शहर ने ही भुला दिया उसे
— एक वफ़ादार कोने की तरह,
जिसे काम पड़ने पर ही याद किया जाता है।
शहर को महसूस तो हुआ
कि कुछ तो गड़बड़ है,
पर उसने अनदेखा किया
उस बुखार को, जो दोपहर में छिपा था।
उसे लगा,
ये बस गर्मी है, गुज़र जाएगी।
लेकिन ये गर्मी नहीं थी,
ये वो लालच का ताप था,
जिसने जून की धूप को विकृति बना दिया।
जैसे दुखियारों को सड़कों का भाजन बना दिया जाता है,
वैसे ही इस शहर ने
क़ुदरत को भी सड़कों पर छोड़ दिया,
बेखबर…
बेसहारा…
अब रात को देखो —
वो निशाचर वृत्तियों से घिरी है,
हर अंधेरे कोने में
कोई जहर पल रहा है,
बढ़ता जा रहा है,
धीरे-धीरे, चुपचाप।
शहर को इसकी कोई फ़िक्र नहीं,
क्योंकि वह अब इसी ज़हर का हिस्सा बन चुका है।
वह दिन में बुखार को अनदेखा करता है,
और रात में उसी बुखार की पूर्ति करता है।
अब शहर नहीं जीता,
वह लालच में बसता है।
वह साँस नहीं लेता,
बल्कि धुँआ छोड़ता है।
वह प्रेम नहीं करता,
बस ख़रीदता है।
क्योंकि यह शहर अब…
लालची हो गया है।
~vrihad