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Friday, July 11, 2025

इब्तिदा-ए-इश्क: प्रथम मिलन

इब्तिदा-ए-इश्क़: प्रथम मिलन

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१. आरंभिक खंड:
तिरे फ़ेहरिस्त-ए-आशिक़ गुनगुनाते
तिरे रूप, रंग, साज-श्रृंगार के क़लमे।

लिख तो दूँ, तेरे क़ातिल यौवन के जलवे,
पर, रक़ीब, प्रेम-द्वंद्व में हार कहाँ मानते।

रूप–रंग–यौवन की चर्चा करते रहें रक़ीब,
हम सिमरन करते तेरा, ईब तू ही मेरा नसीब।

अज़ीयत-ए-हर्फ़ में, रकीब ढूंढे तुझमें तरतीब,
कुछ अल्फ़ाज़ जमे, थोड़ा चमके उनका नसीब।

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२. मिलन की स्मृति:
मैं लिखूँ वो एहसास, जो फूल–से खिले थे,
नीली चाँदनी के नीचे — जब हम मिले थे।

वो पहली मुलाक़ात थी, सावन की शुरुआत थी,
इक बूँद जो गिरी तन पे तेरे, इश्क़ की अलामात थी।

तेरे तन से ढलती बूँदें, पत्तों से गिरती शबनम सी,
भीगी खड़ी तुझे देखा, जैसे जन्मों की सौग़ात थी।

अहो! सौभाग्य जागा मेरा, जब तू मेरे पास थी,
शुष्क मौसम में भी तेरे रहमत की बरसात थी।

पहल-ए-तकरीर में तूने पूछा — वेदना का राज़,
टूटा विरह-संसार, तू नवचेतना की प्रतिघात थी।

प्रथम प्रणय-संध्या का यूँ मिला वरदान,
विरह की सारी पीर — हर गई तेरी मुस्कान।

Thursday, July 10, 2025

आपका आना

 आपका आना


एक कोयल की कुक से मानो

गूंजा सुना अकिंचन प्रांगण मेरा,
किंचित उन नथ बाली से गुजरी थी
एक रौशनी, भरा अंधियारा मन मेरा । 

आपका आना...

जैसे बहारों ने चुपके से
मेरे आंगन की चौखट चूमी,
जैसे किसी भूले गीत की सरगम
फिर से यादों की रात में गूंजी।

आपका आना—

कोई सौंधी बयार थी सावन की,
जो सींच गई सूखते मन की मिट्टी,
जो ठहर गई पलकों पर ओस बनकर,
जो उतर गई सांसों में नाम बनकर।

मैंने सुना था
प्रेम आता नहीं बताकर,
पर आपका आना...
जैसे नज़र का पहली बार ठहर जाना,
जैसे हौले से कोई कह दे — "मैं हूँ यहाँ..."

Wednesday, July 9, 2025

एक लम्हा प्यार का


एक लम्हा प्यार का ऐसा भी आया,
जब मैं तन्हाइयों की राहों में
बेखबर, खुद से दूर, चुपचाप बैठा था।

वो आई... चुपचाप, पर एहसास बनकर,
मेरे सर को अपने कंधों पे सुलाया।
थोड़ी राहत मिली,
सांसों में कोई सुकून सा घुल आया।

आँखें बंद हुईं, और ख़्वाब बनते गए,
कुछ मीठे, कुछ अनजाने, कुछ उसके साथ बुनते गए।

पर जब चाहा, उस ग़मगुसार को देखूं,
उसकी आंखों में खुद को पढ़ लूं,
तो प्रेम-निद्रा से जैसे ही जागा —
वो जा चुकी थी...
जैसे ख्वाबों की तरह,
जैसे कोई सहर का झोंका
जो आता है... बस छूकर चला जाता है।

🌺 क्या कह दूँ —

 (श्रृंगार, विस्मय, आत्मसमर्पण और प्रार्थना की एक नज़्म)

क्या कह दूँ —
एक नूर सा तू उतरा, इक महफ़िल हिल गया।
तेरे यौवन-श्रृंगार में, शायर ग़ज़लें भूल गया।

ग़ाफ़िल महफ़िल, ढूँढती फिरती तराने और तरन्नुम,
तेरी मधुर आवाज़ में, शायर नग़मे भूल गया।

एक कोने से टुकुर-टुकुर देखता मैं, दृश्य था हतप्रभ —
तुझ में डूबा, खो गया मैं, वक़्त के लम्हे भूल गया।

बेबाक हो कुछ यूँ कह गया —

नूर कह दूँ, या हूर कह दूँ,
हरश्रृंगार का फूल कह दूँ,
आश कह दूँ, काश कह दूँ,
या फिर श्रमिक-प्रयास कह दूँ।
सूर्य कह दूँ, चाँद कह दूँ,
या दिव्य चैतन्य प्रकाश कह दूँ?

तारीफ़ भी करूँ तो तेरी क्या करूँ?
मौन-विवश, तुझे बस निहारता रहूँ।


इक इशारा भर कर दे तू आज,
दर पे तेरे, पूरा दिल भी रख दूँ।

शूल से उग आए आशिक़ तमाम —
कहे तो, सबको उखाड़ के रख दूँ।

शब-ए-ग़म की तेरे शिफ़ा कर दूँ,
कह दे तू जो — तेरे सारे ग़म रख लूँ।

तू दे दे मुझे ज़रा थोड़ी-सी जगह दिल में,
तेरे ही दिल में — अपना कोई मकाँ रख लूँ।

Wednesday, July 2, 2025

ग़ज़ल: इस फ़न-ए-आज़माइश को क्या कहिए,

 इस फ़न-ए-आज़माइश को क्या कहिए,
कभी जाने-जहाँ, कभी अंजाने को — क्या कहिए।

तिरछी नज़र से घायल किया तूने मुझे,
हुनर फिर नज़रें फेर लेने को — क्या कहिए।

मुसलसल मुलाक़ातों में बही थीं मोहब्बतें रवानी,
नज़रअंदाज़ी के पैग़ाम भेजने को — क्या कहिए।

दीद-ओ-जल्वे का हुनर,है तेरी तारीख़ में क़ैद,
इशारा-ए-दीद भी न मिलने को — क्या कहिए।

पाक दरिया किनारे जब इश्के इदराक हुआ रौशन,
अहद-ए-वफ़ा किए, वादे टूटने को — क्या कहिए।

कभी चाय की चुस्की में हँसी थी तेरे नाम की,
अब तनहा बैठे फीकी चाय पीने को — क्या कहिए।

वो वादे-वफ़ा कर के भी गुफ़्तगू में न आए,
फिर हमें बार-बार आज़माने को — क्या कहिए।

रास्ता-ए-वादियों में हुई थी मुहब्बत की पहल,
बेमुलाक़ात ही अब बिछड़ने को — क्या कहिए।

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