एक स्याही थी खोई सी
एक कलम थी कुछ रोई रोई सी
कागज़ के कुछ टुकड़े थे बिखरे कोरे से
अरमान जगे थे जो सोये सोये से
कुछ तस्वीर जमीं थी आँखों में
जिनमे लिपट हिये दर्द में समोए थे
संगीत बने थे जो निकले थे
धडकनों की धुन से
हमने छंद और नगमो में पिरोये थे.
शैलाब उठा चंचल मन में
अंजाम ए फ़िक्र से क्या होता है
नश्वर जग है चंद पलों का,
चंद पलों को हमने आँसू में खोया है।
नीली नीली स्याही बहती थी,
और जाने क्या कुछ न कहती थी
शब्दों का मायाजाल बिखेरे है
ये कर,क्या करते बस क्रीडा है ??
या मन फिर स्याही की आँसू में रोया है?